الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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في حكم الصلاة ما ورد و إنما ورد الاستقبال و ما نحن مع المكلف إلا بحسب ما نطق به من الحكم

[الأمر بالشيء لا يقتضي النهي عن ضده]

فلا يقتضي عندنا الأمر بالشيء النهي عن ضده فإنه ما تعرض في النطق لذلك فإذا تعرض و نطق به قبلناه فإذا لم تعمل بما أمرك اللّٰه به فقد عصيته و لو كان الأمر بالشيء نهيا عن ضده لكان على الإنسان خطيئتين أو خطايا كثيرة بقدر ما لذلك المأمور به من الأضداد و هذا لا قائل به فإنما يؤاخذ الإنسان بترك ما أمر بفعله أو فعل ما أمر بتركه لا غير فهو ذو وزر واحد و سيئة واحدة فلا يجزى إلا مثلها و قد أخذت المسألة حقها ظاهرا و باطنا حقا و خلقا شرعا و اعتبارا ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

(فصل بل وصل في ستر العورة)

[ستر العورة فرض على الإطلاق بلا خلاف]

اتفق العلماء على إن ستر العورة فرض بلا خلاف و على الإطلاق أعني في الصلاة و في غيرها و سأذكر حدها في الرجل و المرأة

اعتبار ذلك في الباطن

وجب على كل عاقل ستر السر الإلهي الذي إذا كشفه أدى كشفه من ليس بعالم و لا عاقل إلى عدم احترام الجناب الإلهي الأعز الأحمى فإن حقيقة العورة الميل و لهذا قال من قال ﴿إِنَّ بُيُوتَنٰا عَوْرَةٌ﴾ [الأحزاب:13] أي مائلة تريد السقوط لما استنفروا فأكذبهم اللّٰه عند بغيه بقوله ﴿وَ مٰا هِيَ بِعَوْرَةٍ إِنْ يُرِيدُونَ إِلاّٰ فِرٰاراً﴾ [الأحزاب:13] يعني بهذا القول مما دعوتهم إليه و منه الأعور فإن نظره مال إلى جهة واحدة و كذلك ينبغي أن يستر العالم عن الجاهل أسرار الحق في مثل قوله ﴿مٰا يَكُونُ مِنْ نَجْوىٰ ثَلاٰثَةٍ إِلاّٰ هُوَ رٰابِعُهُمْ﴾ [المجادلة:7] و قوله ﴿وَ نَحْنُ أَقْرَبُ إِلَيْهِ مِنْ حَبْلِ الْوَرِيدِ﴾ [ق:16] و «قوله كنت سمعه و بصره و لسانه» فإن الجاهل إذا سمع ذلك أداه إلى فهم محظور من حلول أو تحديد فينبغي أن يستر ما تعطف الحق به على قلوب العلماء و مال عزَّ وجلَّ سبحانه و تقدس بخطابه مما يقتضيه جلاله من الغني على الإطلاق عن العالمين إلى «قوله تعالى على لسان رسوله صلى اللّٰه عليه و سلم جعت فلم تطعمني مرضت فلم تعدني ظمئت فلم تسقني» فليستر علم هذا عن الجاهل و لا يزيد على ما فسره به قائله سبحانه شيئا كما ستره الحق «بقوله أما أن فلانا مرض فلو عدته وجدتني عنده» و هذا أشكل من الأول لكنه أعطى في هذا التفسير للعلماء بالله علما آخر به تعالى لم يكن عندهم و ذلك أنه في الأول جعل نفسه سبحانه عين المريض و الجائع و في تفسيره تعالى جعل نفسه عائد المريض بكونه عنده فإن من عاد مريضا فهو عنده و أين هذا من جعله نفسه عين المريض و كل قول من ذلك حق و لكل حق حقيقة و أما الستر الذي في ذلك للعامي أن يقال له في قوله لوجدتني عنده إن حال المريض أبدا الافتقار و الاضطرار إلى من بيده الشفاء و ليس إلا اللّٰه فالغالب عليه ذكر اللّٰه مع الأناة في دفع ما نزل به بخلاف الأصحاء و هو سبحانه قد «قال أنا جليس من ذكرني» و هذا وجه صحيح و يقنع العامي به و يبقى العالم بما يعلمه من ذلك على علمه فهذا هو سر الميل الإلهي عن نظر العامي

(فصل بل وصل في ستر العورة في الصلاة)

[أقوال الفقهاء في ستر العورة في الصلاة]

اختلف العلماء هل هي شرط في صحة الصلاة أم لا فمن قائل إن ستر العورة من سنن الصلاة و من قائل إنها من فروض الصلاة

و أما اعتبار ذلك في النفس

فقد أعلمناك ما مفهوم العورة آنفا و في هذه المسألة لما ثبت أن المصلي يناجي ربه و أن الصلاة قد قسمها اللّٰه نصفين بينه و بين عبده فمن غلب أن الحق هو المصلي بأفعال عبده أعني الأفعال الظاهرة من العبد في الصلاة كما ثبت أن اللّٰه قال على لسان عبده في الصلاة سمع اللّٰه لمن حمده عند الرفع من الركوع و العبد هو القائل بلا شك و قال ﴿فَأَجِرْهُ حَتّٰى يَسْمَعَ كَلاٰمَ اللّٰهِ﴾ [التوبة:6] و «الرسول صلى اللّٰه عليه و سلم هو التالي بلا شك قال إن ستر العورة من فروض الصلاة» أي مثل هذا لا يظهر في العامة يريد معناه و سره الذي يعرفه العالم بل يؤمن به العامي كما جاء ﴿وَ مٰا يَعْقِلُهٰا إِلاَّ الْعٰالِمُونَ﴾ [ العنكبوت:43] و من رأى أن لا مرتبة في هذه المسألة بين العالم و العامي و أنه ما فيها إلا ما ورد النص به و لو أدى عند السامع إلى ما أداه إذا لم يخرج عن مقتضى اللسان في ذلك و إن تفاضلت درجاتهم كان ستر العورة عنده من سنن الصلاة لا من فروضها ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

(فصل بل وصل في حد العورة)

[أقوال الفقهاء في حد العورة]

فمن قائل إن العورة في الرجال هي السوءتان و من قائل هي من الرجال من السرة إلى الركبة و هي عندنا السوءتان فقط


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