الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
 

الصفحة - من الجزء (عرض الصورة)


futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 329 - من الجزء 1

أوجب عليه أن يقولها و حكم عليه أن يقولها و لو لا هذا الحكم ما قالها على جهة القربة إلى اللّٰه و ربما لو قالها قالها معلما أو معلما

[الاسم الجامع المنعوت بجميع الأسماء]

دخلت على شيخنا أبي العباس العريبي من أهل العليا و كان مستهترا بذكر الاسم اللّٰه لا يزيد عليه شيئا فقلت له يا سيدي لم لا تقول لا إله إلا اللّٰه فقال لي يا ولدي الأنفاس بيد اللّٰه ما هي بيدي فأخاف أن يقبض اللّٰه روحي عند ما قول لا له فأقبض في وحشة النفي و سألت شيخنا آخر عن ذلك فقال لي ما رأت عيني و لا سمعت أذني من يقول أنا اللّٰه غير اللّٰه فلم أجد من أنفى فأقول كما سمعته يقول اللّٰه اللّٰه و إنما تعبدنا بهذا الاسم في التوحيد لأنه الاسم الجامع المنعوت بجميع الأسماء الإلهية و ما نقل إنه وقعت من أحد من المعبودين فيه مشاركة بخلاف غيره من الأسماء مثل إله و غيره و بهذا القدر من القول إذا قيل لقول الشارع يثبت الايمان و إنما قال الشارع حتى يقولوا لا إله إلا اللّٰه و لم يقل محمد رسول اللّٰه لتضمن هذه الشهادة بالتوحيد الشهادة بالرسالة فإن القائل لا إله إلا اللّٰه لا يكون مؤمنا إلا إذا قالها لقول رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم فإذا قالها لقوله فهو عين إثبات رسالته فلما تضمنت هذه الكلمة الخاصة الشهادة بالرسالة لهذا لم يقل قولوا محمد رسول اللّٰه و قال في غير القول و هو الايمان و الايمان معنى من المعاني ما هو مما يدرك بالحس فقرن بالإيمان بالله الايمان به و بما جاء به يعني من عنده مما له أن يشرعه من غير نقل عن اللّٰه «فقال في حديث ابن عمر لما ذكر الايمان بالله و بالصلاة و الزكاة و الحج و الصوم و كل هذا جاء من عند اللّٰه قال في حديث ابن عمر أمرت أن أقاتل الناس حتى يشهدوا أن لا إله إلا اللّٰه و يؤمنوا بي و بما جئت به» من أجل المنافق المقلد فإنه يقولها من غير إيمان بقلبه و لا اعتقاد و الجاحد المنافق يقولها لا لقوله مع علمه بأنه رسول اللّٰه من كتابه لا من دليله العقلي

[التوحيد العقلي و التوحيد الشرعي]

و اعلم أن التلفظ بشهادة الرسالة المقرونة بشهادة التوحيد فيه سر إلهي عرفنا به الحق سبحانه و هو أن الإله الواحد الذي جاء بوصفه و نعته الشارع ما هو التوحيد الإلهي الذي أدركه العقل فإن ذلك لا يقبل اقتران الشهادة بالرسالة مع الشهادة بالتوحيد فهذا التوحيد من حيث ما يعلمه الشارع ما هو التوحيد من حيث ما أثبته النظر العقلي و إذا كان الإله الذي دعانا الشرع إلى عبادته و توحيده إنما هو في رتبة كونه إلها لا في ذاته صح أن تنعته بما نعته به من النزول و الاستواء و المعية و التردد و التدبر و ما أشبه ذلك من الصفات التي لا يقبلها توحيد العقل المحض المجرد عن الشرع فهذا المعبود ينبغي أن تقرن شهادة الرسول برسالته بشهادة توحيد مرسله و لهذا يضاف إليه فيقال أشهد أن لا إله إلا اللّٰه أشهد أن محمدا رسول اللّٰه كل يوم ثلاثين مرة في أذان الخمس الصلوات و في الإقامة و المتلفظون بهذه الشهادة الرسالية التفصيل فيهم كالتفصيل في شهادة التوحيد فلنمش بها على ذلك الأسلوب من المراتب

[السنة و البدعة]

و في الايمان بالله و برسوله الايمان بكل ما جاء به من عند اللّٰه و من عنده مما سنه و شرعه و يدخل فيما سنه الايمان بسنة من سن سنة حسنة فاستمر الشرع و حدوث العبادة المرغب فيها مما لا ينسخ حكما ثابتا إلى يوم القيامة و هذا الحكم خاص بهذه الأمة و أعني بالحكم تسميتها سنة تشريفا لهذه الأمة و كانت في حق غيرهم من الأمم السالفة تسمى رهبانية قال تعالى ﴿وَ رَهْبٰانِيَّةً ابْتَدَعُوهٰا﴾ [الحديد:27] فمن قال بدعة في هذه الأمة مما سماها الشارع سنة فما أصاب السنة إلا أن يكون ما بلغه ذلك و الاتباع أولى من الابتداع و الفرق بين الاتباع و الابتداع معقول و لهذا جنح الشارع إلى تسميتها سنة و ما سماها بدعة لأن الابتداع إظهار أمر على غير مثال هذا أصله و لهذا قال الحق تعالى عن نفسه ﴿بَدِيعُ السَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضِ﴾ [البقرة:117] أي موجدها على غير مثال سبق فلو شرع الإنسان اليوم أمرا لا أصل له في الشرع لكان ذلك إبداعا و لم يكن يسوغ لنا الأخذ به فعدل الشارع عن لفظ الابتداع إلى لفظ السنة إذ كانت السنة مشروعة و قد شرع اللّٰه لمحمد صلى اللّٰه عليه و سلم الاقتداء يهدي الأنبياء عليهم السلام ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4] انتهى الجزء الثلاثون

(الباب الثامن و الستون في أسرار الطهارة)

[أبواب الوضوء]

(بسم اللّٰه الرحمن الرحيم)

تبصر ترى سر الطهارة واضحا *** يسيرا على أهل التيقظ و الذكاء


مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1328 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1329 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1330 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1331 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1332 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 1333 من مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لطبعة القاهرة (دار الكتب العربية الكبرى) - المعروفة بالطبعة الميمنية. وقد تم إضافة عناوين فرعية ضمن قوسين مربعين.

 

الصفحة - من الجزء (اقتباسات من هذه الصفحة)

[الباب: ] - (مقاطع فيديو مسجلة لقراءة هذا الباب)

البحث في كتاب الفتوحات المكية

الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!