الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 63 - من الجزء 4

﴿وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب الثامن و الأربعون و أربعمائة في معرفة منازلة

«من كشفت له شيئا
مما عندي بهت فكيف يطلب أن يراني هيهات»

»

إذا كان ما عنده حاكم *** علي فكيف بنا إذ نراه

فليس يراه سوى عينه *** و هل ثم عين تراه سواه

يغالطنا بوجود السوي *** و عين السوي هو عين الإله

فإمكاننا لم يزل قائما *** وجودا و فقدا بنا في حماه

فلسنا سواه و لا نحن هو *** فعين ضلالتنا من هداه

[شمس حق شرقت من المشرق]

قال اللّٰه عز و جل ﴿فَبُهِتَ الَّذِي كَفَرَ﴾ [البقرة:258] و لهذا كفر و ما كان إلا الشروق و الغروب و هو الوجدان و الفقد هذه شمس حق شرقت من المشرق و لو لا شروقها ما كان مشرقا ذلك الجناب ﴿فَأْتِ بِهٰا مِنَ الْمَغْرِبِ﴾ [البقرة:258] و هذا في الحقيقة لو أتى بها أي لو شرقت من المغرب لكان مشرقا فما شرقت إلا من المشرق فبهت الكافر و هو موضع البهت لأنه علم أنه حيث كان الشروق لها اتبعه اسم المشرق فليس للمغرب سبيل في نفس الأمر فما بهت الكافر إلا من عجزه كيف يوصل إلى أفهام الحاضرين مع قصورهم موضع العلم فيما جاء به إبراهيم الخليل عليه السّلام فأظلم عليه الأمر و تخبط في نفسه فظهرت حجة إبراهيم الخليل عليه السّلام عليه إمام الحاضرين و إنما نسب الكفر إليه بالمسألة الأولى فإنه علم ما أراده الخليل بقوله ﴿رَبِّيَ الَّذِي يُحْيِي وَ يُمِيتُ﴾ [البقرة:258] فستره فسمي كافرا ف‌ ﴿قٰالَ أَنَا أُحْيِي وَ أُمِيتُ﴾ [البقرة:258] و يقال فيمن أبقى حياة الشخص عليه إذا استحق قتله أن يقال أحياه و لم يكن مراد الخليل إلا ما فهمه نمروذ فعدل إبراهيم إلى ما هو أخفى في نفس الأمر و أبعد و هو أوضح عند الحاضرين فجاء بالمسألة الثانية ﴿فَبُهِتَ الَّذِي كَفَرَ﴾ [البقرة:258] في أمر إبراهيم كيف عدل إلى ما هو أخفى في نفس الأمر و أبعد لإقامة الحجة و قامت له الحجة عليه عند قومه فكان بهته في هذا الأمر المعجز الذي أعمى بصائر الحاضرين عن معرفة عدوله من الأوضح إلى الأخفى فحصل من تعجبه و بهته في نفوس الحاضرين عجزه و هو كان المراد و لم يقدر نمروذ على إزالة ما حصل في قلوب العارفين الحاضرين من ذلك فعلم صدقه و لكن اللّٰه ما هداه أي ما و فقه للإيمان «لقوله ﷺ فإنه عالم بأنه على الحق» و لا يصح بهت إلا في تجلى ما عند الحق و ما عند الحق إلا ما أنت عليه فإنه ما يظهر إليك إلا بك فتقر به فيك و تنكر ما أنت به مقر فيه و ذلك لجهلك بك و بربك لأنك لو عرفت نفسك عرفت ربك فما ثم إلا خلق و هو ما تراه و تشهده و لو فتشت على دقائق تغيراتك في كل نفس لعلمت أن الحق عين حالك و أنه من حيث هو وراء ذلك كله كما هو عين ذلك كله فالحق خلق و ما الخلق حق و إن اختلفت عليه الأسماء أ ليس مما عند اللّٰه دك جبل موسى فصعق و هو أعظم من البهت و ما أصعقه إلا ما عنده و هو ممن طلب أن يرى ربه فلما علم موسى عليه السّلام عند ذلك ما لم يكن يعلم من صورة الحق مع العالم قال ﴿تُبْتُ إِلَيْكَ﴾ [الأعراف:143] أي لا أطلب رؤيتك على الوجه الذي كنت طلبتها به أولا فإني قد عرفت ما لم أكن أعلمه منك ﴿وَ أَنَا أَوَّلُ الْمُؤْمِنِينَ﴾ [الأعراف:143] بقولك ﴿لَنْ تَرٰانِي﴾ [الأعراف:143] فإنك ما قلت ذلك إلا لي و هو خبر فلذلك ألحقه بالإيمان لا بالعلم و لو لا ما أراد الايمان بقوله ﴿لَنْ تَرٰانِي﴾ [الأعراف:143] ما صحت الأولية فإن المؤمنين كانوا قبله و لكن بهذه الكلمة لم يكن فكل من آمن بعد البهت أو الصعق فقد آمن على بصيرة فهو صاحب علم في إيمان و هذا عزيز الوجود في عباد اللّٰه و قليل في أهل اللّٰه من يبقى معه الايمان مع العلم فإنه لما انتقل إلى الأوضح و هو العلم فقد انتقل عن إيمانه و الكامل هو المؤمن في حال علمه بما هو به مؤمن لا بما كان به مؤمنا فيقال فيه مؤمن عالم بعين واحدة ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4]

«الباب التاسع و الأربعون و أربعمائة في معرفة منازلة قول من

«قال عن اللّٰه ليس عبدي من تعبد عبدي»

»

العبد من لا عبد له *** سبحانه ما أكمله

قد جمع اللّٰه له *** كل وجود أمله

مشتبها و محكما *** مجملة مفصله

سواه إذ عدله *** و بعد هذا فصله

بكل عين أشهده *** بكل علم فضله

فإنما أنابه *** في كل أحوالي و له

حزنا الكمال كله *** أنا و هو و الكل له

[أحوال العبد على قسمين ذاتية و عرضية]

قال عزَّ وجلَّ لمحمد ﴿قُلْ إِنَّ الْأَمْرَ كُلَّهُ لِلّٰهِ﴾ [آل عمران:154] فقلنا الأمر كله لله ﴿أَلاٰ لَهُ الْخَلْقُ وَ الْأَمْرُ﴾ [الأعراف:54] فهو الخلق و الأمر اعلم أنه لا يملك المملوك


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