الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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قمت بآداب الحق في إعطائه كل شيء خلقه هذا قسم آداب الحق

و أما قسم آداب الحقيقة

فحاله أن يراه في الأشياء عينها لا هي ثم يحكم على ما يراه من الزيادة و النقص بما أعطته استعدادات الأشياء فينسب ذلك إليها لا إليه كمالا كان أو نقصا أو موافقا أو مخالفا لا يحاشي شيئا فإن حال الحقيقة يعطي ما قلناه فإذا كان حالك في كل مقام ما ذكرناه فقد قمت بالأدب و أخذت الخير أجمعه بكلتا يديك و ملأتهما خيرا و هذا غاية وسع المخلوق ﴿وَ اللّٰهُ يَهْدِي مَنْ يَشٰاءُ إِلىٰ صِرٰاطٍ مُسْتَقِيمٍ﴾ [البقرة:213] و الكلام على الأحوال لا يحتمل البسط و تكفي فيه الإشارة إلى المقصود و مهما بسطت القول فيه أفسدته ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4] «بسم اللّٰه الرحمن الرحيم»

«الباب الثالث و مائتان في حال الرياضة»

إذا هذب الإنسان أخلاق نفسه *** و أخرجها عن طبعها و مرادها

و ذاك محال عندنا كونه فما *** يرى راضها من راضها بعنادها

فإن كنت ذا علم فإن مصارفا *** لها عينت بالشرع عند فسادها

[الرياضة قسمان]

اعلم أن الرياضة عند القوم من الأحوال و هي قسمان رياضة الأدب و رياضة الطلب

فرياضة الأدب

عندهم الخروج عن طبع النفس

و رياضة الطلب

هي صحة المراد به أعني بالطلب و عندنا الرياضة تهذيب الأخلاق فإن الخروج عن طبع النفس لا يصح و لما كان لا يصح بين اللّٰه لذلك الطبع مصارف فإذا وقفت النفوس عندها حمدت و شكرت و لم تخرج بذلك عن طبعها فرياضتها اقتصارها على المصارف التي عينها لها خالقها فإن عين الشيء المزاجي ليس غير مزاجه فلو خرج الشيء عن طبعه لم يكن هو و لهذا يكون قول من قال رياضة الطلب صحة المراد به فإنه إذا كان الشيء مرادا به أمر ما و المريد لذلك الأمر هو موجد ذلك الشيء و قد عينه له و عرفه به و إن ذلك القدر يريد منه فتصرف فيه بطبعه على ذلك الحد كان صاحب رياضة لأنه لو تصرف في نقيض ما أريد منه لكان تصرفه فيه بطبعه أيضا فما كان التهذيب فيه إلا صرفه عن الإطلاق في التصرف إلى التقييد فإن أراد صاحب القول في رياضة الأدب أنه الخروج عن طبع النفس بمعنى ما كان لها فيه التصرف مطلقا صار مقيدا فحمل هذا الشخص نفسه على ما قيدها به خالقها من التصرف فيه و دخلت تحت التحجير بعد ما كانت مسرحة فهو الذي ذكرناه و إن أراد غير ذلك فليس إلا ما قلناه و ذلك أن الرياضة تذليل النفس و إلحاقها بالعبودية و لذا سميت الأرض أرضا و ذلولا فالرياضة عندنا من صير نفسه أرضا أي مثل الأرض يطئوها البر و الفاجر و لا يؤثر عندها تمييزا بل تحمل البار حبا لما هو عليه من مراضي سيده و تحمل الفاجر حمل اللّٰه إياه بكونه يرزقه على كفره بنعمه و جحده إياها و نسيان رب النعمة فيها و إلى الرياضة يرجع مسمى الرضي على الحقيقة إن تفطنت لأن النفس تطلب بذاتها الكثير من الخير لأن الأصل على ذلك فإن اللّٰه تعالى ما طلب إلا الممكنات و هي غير متناهية و لا أكثر مما لا يتناهى و ما لا يتناهى لا يدخل في الوجود دفعة و لكن يدخل قليلا قليلا لا إلى نهاية فإذا نسبت إليه ما توجه إليه طلبه من الكثرة ثم رضي من ذلك باليسير و التدريج لعلمه أن ما لا يتناهى لا يمكن حصوله في الوجود رضي بذلك القدر الذي يدخل منه فمتعلق الرضي لا يكون إلا بالقليل و لا يكون مخلوق بأعظم قدرا من خالقه و إذا كانت هذه صفة الحق فهي بالعبد أولى فما عند اللّٰه لا يتناهى و مطلب هذا العبد من اللّٰه ما عنده و لا يتمكن دخوله في الوجود إلا قليلا قليلا لا إلى نهاية فرضي بذلك القدر العبد و هو قليل بالنسبة إلى متعلق علمه بما عند اللّٰه فرضي عن الحق و رضي الحق عنه فوقع الاقتصار من العالم بما لا يتناهى على ما أعطى من ذلك مما يتناهى رياضة منه عن مطلق تعلق علمه من ذلك إذ قد علم أيضا أن ما لا يتناهى لا يدخل في الوجود فحقيقة الرياضة ترجع إلى هذا لأن الآدمي لما خلق على الصورة زهت نفسه و تخيلت أن التحجير لا يصح على من له العزة و ما علمت أن العزة تحجير فإن العزة حمى و الحمى تحجير فعين ما ادعت به الإطلاق ذلك


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