الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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التعليم كما قال ﴿اَلرَّحْمٰنُ عَلَّمَ الْقُرْآنَ خَلَقَ الْإِنْسٰانَ عَلَّمَهُ الْبَيٰانَ﴾ فالتعليم هو عين الفتح و من هذا الباب ﴿فَأَيْنَمٰا تُوَلُّوا فَثَمَّ وَجْهُ اللّٰهِ﴾ [البقرة:115] كالصلاة على الراحلة فالمستقبل لا يتقيد فهو بحسب ما تمشي به كذلك لا يعرف العارف أين يسلك به ربه في مناجاته فإنه بحسب ما يناجيه به من كلامه و كلامه سور القرآن فأي سورة أو أي آية شاء قرأ من غير تعيين لأن الشارع ما قيده بسورة بعينها فهو بحسب ما يلقى في خاطره و ذلك إلى اللّٰه فكما لا علم له بما يلقيه في نفسه مما يناجيه به إلا حتى يلقيه كذلك لا يعلم ما يقول له الحق في مناجاته في منازلته و من هذا الباب قوله ﴿فَعِدَّةٌ مِنْ أَيّٰامٍ أُخَرَ﴾ [البقرة:184] و أيام اللّٰه التي بقطعها العبد بعمرة لا يعين قدرها و لهذا نكرها فالذي يجب على المكلف في سفره عدة من أيام أخر له الاختيار في تعيينها و لكن لا يدري ما يعين منها إلا بإلقاء اللّٰه في نفسه ذلك و الصوم لا مثل له فلا يدري في أي صفة يقيمه مما لا مثل لها من جانب الحق و هي كل صفة إلهية لا يمكن للعبد الاتصاف بها و إن علمها كما يعلم أن الحق لا يماثله و لا يكون بهذا العلم إلها لأن الألوهة ليست صفته و هذا معنى «قوله ﷺ حين سأل ربه اللهم إني أسألك بكل اسم سميت به نفسك أو علمته أحدا من خلقك أو استأثرت به في علم غيبك» فدخل في هذا كل اسم ممكن أن يتصف به و كل اسم لا يمكن أن يتصف به فما لا يتصف به من الأسماء لا مثل له فيكون معلوما لنا في صومنا غير قائم بنا بحيث أن نتصف به هذا فائدة عدم التعيين في الأيام التي نصومها إذا كنا مسافرين فأفطرنا فنقضي أيام رمضان أو نؤديه في أيام غير معينة فصاحب هذه المنازلة يقصد اللّٰه تعالى في عروجه فارغ القلب خالي النفس عريا عن قصد اسم معين إلهي بما أنت عبد و بما هو إله فعال لما يشاء لا يخطر لك أمر تطلبه منه إنما هو أن تكون معه في عروجك بحسب ما يكون منه مع حفظ أوقاتك فيما وقع عليك من التكليف لاقتضاء حق الوقت و مراعاة خطاب الشرع مع غيبتك عنك في ذلك بتوليه فيما أنت فيه و أنت محل لجريان مقاديره مع التحفظ و لزوم الأدب أن يجعلك محلا لما حجره عليك فإن أنت سلكت على هذا الأسلوب يبدو لك من الحق في منازلته ما لم يخطر لك بخاطر بل ما لا ينقال و لا تسعه العبارة

«الباب التاسع و الثمانون و ثلاثمائة في معرفة منازلة إلى كونك و أ لك كوني»

إلي منك الدنو وقتا

إنيتي فيك يا حبيبي

و لم أغب عنه إذ تجلى *** و لو دري لاشتهى التمني

[مقام قاب قوسين]

قال اللّٰه تعالى ﴿ثُمَّ دَنٰا فَتَدَلّٰى﴾ [ النجم:8] فهذه عين المنازلة لأن كل صورة منهما فارقت مكانها فكانت كل صورة من الأخرى أدنى من قاب قوسين لكل واحدة من الصورتين قوس أظهر التقويس و الفرقان بين الصورتين الخط الذي قسم الدائرة بنصفين فكان الأمر عينا واحدة ثم ظهر بالصورة أمران فلما صار الحكم أمرين كان من الأمر الواحد تدليا لأن العلو كان له و في عين هذا التدلي دنو من الأمر الآخر و كان من الآخر تدان إلى من تدلى إليه فكان دنوه عروجا لأن تدلى الأمر الآخر إليه أعلمنا أن السفل كان قسم هذا الآخر و ما تدانى كل واحد من الآخر إلا ليرجع الأمر كما كان دائرة واحدة لا فصل بين قطريها فكلاهما يسعيان في إزالة الخط الذي أوجب التقسيم في الدائرة فموضع التقسيم قوله «قسمت الصلاة بيني و بين عبدي نصفين فنصفها لي و نصفها لعبدي و لعبدي ما سأل» و ما للعبد سؤال إلا إزالة هذه القسمة حتى يعود الأمر كما كان فأجابه الحق إلى سؤاله بقوله و لعبدي ما سأل فقال ﴿وَ إِلَيْهِ يُرْجَعُ الْأَمْرُ كُلُّهُ﴾ [هود:123]

فتدليه دنو

حدثت حين افترقنا

فنكاح مستمر *** و ولوج و خروج

«و من ذلك»

فكان منه التدلي

و لما التقينا عن حب و اشتياق خاطبني من أعلم في سرى


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