الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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و لم يكن لهم أمر إلهي بالتقدم فما ورد عليهم فيلزمهم طاعته لما هم عليه من التحقق أيضا بالعبودية فيكونون قائمين به في مقام العبودية بامتثال أمر سيدهم و أما مع التخيير و العرض أو طلب تحصيل المقام فإنه لا يظهر به إلا من لم يتحقق بالعبودة التي خلق لها فهذا يا ولي قد عرفتك في هذا الباب بمقاماتهم و بقي التعريف بأصولهم و تعيين أحوال الأقطاب المدبرين من الطبقة الثانية منهم نذكر ذلك فيما بعد إن شاء اللّٰه ﴿وَ اللّٰهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَ هُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ﴾ [الأحزاب:4] لا رب غيره

(الباب الحادي و الثلاثون في معرفة أصول الركبان)

حدب الدهر علينا و حنا *** و مضى في حكمه و ما ونى

و عشقناه فغنينا عسى *** يطرب الدهر بإيقاع الغنا

نحن حكمناك في أنفسنا *** فاحكم إن شئت علينا أو لنا

و لقد كان له الحكم و ما *** كان ذاك الحكم للدهر بنا

فشفيعي هو دهري و الذي *** صرف الدهر كذا صرفنا

فركبنا نطلب الأصل الذي *** جعل السر لدينا علنا

فلنا منه الذي حركنا *** و له منا الذي سكننا

حركات الدهر فينا شهدت *** أنه قال له ما سكنا

فأنا العبد الذليل المجتبى *** و أنا حق و ما الحق أنا

[التبري من الحركة]

اعلم أيدك اللّٰه أن الأصول التي اعتمد عليها الركبان كثيرة منها التبري من الحركة إذا أقيموا فيها فلهذا ركبوا فهم الساكنون على مراكبهم المتحركون بتحريك مراكبهم فهم يقطعون ما أمروا بقطعه بغيرهم لا بهم فيصلون مستريحين مما تعطيه مشقة الحركة متبرءين من الدعوى التي تعطيها الحركة حتى لو افتخروا بقطع المسافات البعيدة في الزمان القليل لكان ذلك الفخر راجعا للمركب الذي قطع بهم تلك المسافة لا لهم فلهم التبري و ما لهم الدعوى فهجيرهم لا حول و لا قوة إلا بالله و آيتهم ﴿وَ مٰا رَمَيْتَ إِذْ رَمَيْتَ وَ لٰكِنَّ اللّٰهَ رَمىٰ﴾ [الأنفال:17] يقال لهم و ما قطعتم هذه المسافات حين قطعتموها و لكن الركاب قطعتها فهم المحمولون فليس للعبد صولة لا بسلطان سيده و له الذلة و العجز و المهانة و الضعف من نفسه و لما رأوا أن اللّٰه قد نبه بقوله تعالى ﴿وَ لَهُ مٰا سَكَنَ﴾ [الأنعام:13] فأخلصه له علموا إن الحركة فيها الدعوى و أن السكون لا تشوبه دعوى فإنه نفي الحركة فقالوا إن اللّٰه قد أمرنا بقطع هذه المسافة المعنوية وجوب هذه المفاوز المهلكة إليه فإن نحن قطعناها بنفوسنا لم نأمن على نفوسنا من أن نتمدح بذلك في حضرة الاتصال فإنها مجبولة على الرعونة و طلب التقدم و حب الفخر فنكون من أهل النقص في ذلك المقام بقدر ما ينبغي أن نحترم به ذلك الجلال الأعظم

[الحوقلة نجب الأفراد]

فلنتخذ ركابا نقطع به فإن أرادت الافتخار يكون الافتخار للركاب لا للنفوس فاتخذت من لا حول و لا قوة إلا بالله نجبا لما كانت النجب أصبر عن الماء و العلف من الأفراس و غيرها و الطريق معطشة جدبة يهلك فيها من المراكب من ليس له مرتبة النجب فلهذا اتخذوها نجبا دون غيرها مما يصح أن يركب و لا يصح أن يقطع ذلك الحمد لله فإن هذا الذكر من خصائص الوصول و لا سبحان اللّٰه فإنه من خصائص التجلي و لا لا إله إلا اللّٰه فإنه من خصائص الدعاوي و لا اللّٰه أكبر فإنه من خصائص المفاضلة فتعين لا حول و لا قوة إلا بالله فإنه من خصائص الأعمال فعلا و قولا ظاهرا و باطنا لأنهم بالأعمال أمروا و السفر عمل قلبا و بدنا و معنى و حسا و ذلك مخصوص بلا حول و لا قوة إلا بالله فإنه بها يقولون لا إله إلا اللّٰه و بها نقول سبحان اللّٰه و غير ذلك من جميع الأقوال و الأعمال

[«السكون» مناط اختيار«الأفراد»]

و لما كان السكون عدم الحركة و العدم أصلهم لأنه قوله ﴿وَ قَدْ خَلَقْتُكَ مِنْ قَبْلُ وَ لَمْ تَكُ شَيْئاً﴾ [مريم:9] يريد موجودا فاختاروا السكون على الحركة و هو الإقامة على الأصل فنبه سبحانه و تعالى في قوله ﴿وَ لَهُ مٰا سَكَنَ فِي اللَّيْلِ وَ النَّهٰارِ﴾ [الأنعام:13] أن الخلق سلموا له العدم و ادعوا له في الوجود فمن باب الحقائق عرى الحق خلقه في هذه الآية عن إضافة ما ادعوه لأنفسهم بقوله ﴿وَ لَهُ مٰا سَكَنَ فِي اللَّيْلِ وَ النَّهٰارِ﴾ [الأنعام:13] أي ما ثبت و الثبوت أمر وجودي عقلي لا عيني بل نسبي ﴿وَ هُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ﴾ [البقرة:137] يسمع


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