الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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عمر بن الخطاب رضي اللّٰه عنه ما أصابتني من مصيبة إلا رأيت أن لله علي فيها ثلاث نعم النعمة الواحدة حيث لم تكن المصيبة في ديني و النعمة الثانية حيث لم يكن ما هو أكبر منها فدفع اللّٰه بها ما هو أعظم منها و النعمة الثالثة ما جعل اللّٰه فيها من الأمر بالكفارة لما كنا نتوقاه من سيئات أعمالنا

[أن المؤمن في الدنيا كثير الرزايا]

و اعلم أن المؤمن في الدنيا كثير الرزايا لأن اللّٰه يحب أن يطهره حتى ينقلب إليه طاهرا مطهرا من دنس المخالفات التي كتب اللّٰه عليه في الدنيا أن يقام فيها فلا يزال المؤمن مرزأ في عموم أحواله و «قد ثبت عن رسول اللّٰه ﷺ في ذلك مثل المؤمن كمثل الخامة من الرزغ تصرعها الريح مرة و تعدلها أخرى حتى تهيج»

(وصية)

عليك بتلاوة القرآن و تدبره و انظر في تلاوتك إلى ما حمد فيه من النعوت و الصفات التي وصف اللّٰه بها من أحبه من عباده فاتصف بها و ما ذم اللّٰه في القرآن من النعوت و الصفات التي اتصف بها من مقته اللّٰه فاجتنبها فإن اللّٰه ما ذكرها لك و أنزلها في كتابه عليك و عرفك بها إلا لتعمل بذلك فإذا قرأت القرآن فكن أنت القرآن لما في القرآن و اجتهد أن تحفظه بالعمل كما حفظته بالتلاوة فإنه لا أحد أشد عذابا يوم القيامة من شخص حفظ آية ثم نسيها كذلك من حفظ آية ثم ترك العمل بها كانت عليه شاهدة يوم القيامة و حسرة و إنه «قد ثبت عن رسول اللّٰه ﷺ في أحوال من يقرأ القرآن و من لا يقرءوه من مؤمن و منافق فقال ﷺ مثل المؤمن الذي يقرأ القرآن مثل الأترجة ريحها طيب» يعني بها التلاوة و القراءة فإنها أنفاس تخرج فشبهها بالروائح التي تعطيها الأنفاس «و طعمها طيب» يعني به الايمان و لذلك «قال ذاق طعم الايمان من رضي بالله ربا و بالإسلام دينا و بمحمد ﷺ نبيا» فنسب الطعم للإيمان «ثم قال و مثل المؤمن الذي لا يقرأ القرآن كمثل الثمرة طعمها طيب» من حيث إنه مؤمن ذو إيمان «و لا ريح لها» من حيث إنه غير تال في الحال التي لا يكون فيها تاليا و إن كان من حفاظ القرآن «ثم قال و مثل المنافق الذي يقرأ القرآن كمثل الريحانة ريحها طيب» لأن القرآن طيب و ليس سوى أنفاس التالي و القاري في وقت تلاوته و حال قراءته «و طعمها مر» لأن النفاق كفر الباطن لأن الحلاوة للإيمان لأنها مستلذة «ثم قال و مثل المنافق الذي لا يقرأ القرآن كمثل الحنظلة طعمها مر و لا ريح لها» لأنه غير قارئ في الحال و على هذا المساق كل كلام طيب فيه رضي اللّٰه صورته من المؤمن و المنافق صورة القرآن في التمثيل غير إن القرآن منزلته لا تخفى فإن كلام اللّٰه لا يضاهيه شيء من كل كلام مقرب إلى اللّٰه فينبغي للذاكر إذا ذكر اللّٰه متى ذكره أن يحضر في ذكره ذلك ذكرا من الأذكار الواردة في القرآن فيذكر اللّٰه به ليكون قارئا في الذكر و إذا كان قارئا فيكون حاكيا للذكر الذي ذكر اللّٰه به نفسه و إذا كان كذلك فقد أنزل نفسه فيه منزلة ربه منه و هو قوله ﴿فَأَجِرْهُ حَتّٰى يَسْمَعَ كَلاٰمَ اللّٰهِ﴾ [التوبة:6] و قوله إن اللّٰه قال على لسان عبده سمع اللّٰه لمن حمده و «يقال للقارئ يوم القيامة اقرأ و ارق» و رقية في الدنيا في أيام التكليف في قراءته أن يرقى من تلاوته إلى تلاوته بأن يكون الحق هو الذي يتلو على لسان عبده كما يكون سمعه الذي به يسمع و بصره الذي به يبصر و يديه اللتين بهما يبطش و رجليه اللتين بهما يسعى كذلك هو لسانه الذي به ينطق و يتكلم فلا يحمد اللّٰه و لا يسبحه و لا يهلله إلا بما ورد في القرآن عن استحضار منه لذلك فيرقى من قراءته بنفسه إلى قراءته بربه فيكون الحق هو الذي يتلو كتابه فيرتفع يوم القيامة في الآية التي ينتهي إليها في قراءته و يقف عندها إلى الدرجة التي تليق بتلك الآية التي يكون الحق هو التالي لها بلسان هذا العبد عن حضور من العبد التالي لذلك فإن أفضل الكلام كلام اللّٰه الخاص المعروف في العرف

(وصية)

و عليك بمجالسة من تنتفع بمجالسته في دينك من علم تشهده منه أو عمل يكون فيه أو خلق حسن يكون عليه فإن الإنسان إذا جالس من تذكره مجالسته الآخرة فلا بد أن يتحلى منها بقدر ما يوفقه اللّٰه لذلك و إذا كان الجليس له هذا التعدي فاتخذ اللّٰه جليسا بالذكر و الذكر القرآن و هو أعظم الذكر قال تعالى ﴿إِنّٰا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ﴾ [الحجر:9] يعني القرآن و «قال أنا جليس من ذكرني» و «قال ﷺ أهل القرآن هم أهل اللّٰه و خاصته» و خاصة الملك جلساؤه في أغلب أحوالهم و اللّٰه له الأخلاق و هي الأسماء الحسنى الإلهية فمن كان الحق جليسه فهو أنيسه فلا بد أن ينال من مكارم أخلاقه على قدر مدة مجالسته و من جلس إلى قوم يذكرون اللّٰه فإن اللّٰه يدخله


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