الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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و في الهواء غير أنهم ليست لهم قدم محسوسة في السماء و بهذا زاد على الجماعة رسول اللّٰه ﷺ بإسراء الجسم و اختراق السموات و الأفلاك حسا و قطع مسافات حقيقية محسوسة و ذلك كله لورثته معنى لا حسا من السموات فما فوقها فلنذكر من إسراء أهل اللّٰه ما أشهدني اللّٰه خاصة من ذلك فإن إسراءاتهم تختلف لأنها معان متجسدة بخلاف الإسراء المحسوس فمعارج الأولياء معارج أرواح و رؤية قلوب و صور برزخيات و معان متجسدات فمما شهدته من ذلك و قد ذكرناه في كتابنا المسمى بالإسراء و ترتيب الرحلة

أ لم تر أن اللّٰه

﴿أَسْرىٰ بِعَبْدِهِ﴾ [الإسراء:1] من الحرم الأدنى ﴿إِلَى الْمَسْجِدِ الْأَقْصَى﴾ [الإسراء:1] إلى أن علا السبع السموات قاصدا *** إلى بيته المعمور بالملإ الأعلى إلى السدرة العليا و كرسيه الأحمى *** إلى عرشه الأسنى إلى المستوي الأزهى إلى سبحات الوجه حين تقشعت *** سحاب العمي عن عين مقلته النجلا و كان تدليه على الأمر إذ دنى *** من اللّٰه قربا ﴿قٰابَ قَوْسَيْنِ أَوْ أَدْنىٰ﴾ [ النجم:9]

و كانت عيون الكون عنه بمعزل *** تلاحظ ما يسقيه بالمورد الأحلى

فخاطبه بالأنس صوت عتيقة *** توقف فرب العرش سبحانه صلى

فأزعجه ذاك الخطاب و قال هل *** يصلي إلهي ما سمعت به يتلى

و شال حجاب العلم عن عين قلبه *** و أوحى إليه في الغيوب الذي أوحى

فعاين ما لا يقدر الخلق قدره *** و أيده الرحمن بالعروة الوثقى

و ألفاه تواقا إلى وجه ربه *** فأكرمه الرحمن بالمنظر الأجلى

و من قبل ذا قد كان أشهد قلبه *** بغار حراء قبل ذلك في المجلى

فإذا أراد اللّٰه تعالى أن يسرى بأرواح من شاء من ورثة رسله و أوليائه لأجل أن يريهم من آياته فهو إسراء لزيادة علم و فتح عين فهم فيختلف مسراهم فمنهم من أسرى به فيه فهذا الإسراء فيه حل تركيبهم فيوقفهم بهذا الإسراء على ما يناسبهم من كل عالم بأن يمر بهم على أصناف العالم المركب و البسيط فيترك مع كل عالم من ذاته ما يناسبه و صورة تركه معه أن يرسل اللّٰه بينه و بين ما ترك منه مع ذلك الصنف من العالم حجابا فلا يشهده و يبقى له شهود ما بقي حتى يبقى بالسر الإلهي الذي هو الوجه الخاص الذي من اللّٰه إليه فإذا بقي وحده رفع عنه حجاب الستر فيبقى معه تعالى كما بقي كل شيء منه مع مناسبه فيبقى العبد في هذا الإسراء هو لا هو فإذا بقي هو لا هو أسرى به من حيث هو لا من حيث لا هو إسراء معنويا لطيفا فيه لأنه في الأصل على صورة العالم و صورته على صورته تعالى فكله على صورته من حيث هو تعالى فإن العالم على صورة الحق و الإنسان على صورة العالم فالإنسان على صورة الحق فإن المساوي لأحد المتساويين مساو لكل واحد من المتساويين فإنه إذا كان كل ألف با و كل با جيم فكل ألف جيم فلينظر جيم من حيث هو ألف لا من حيث هو با كذلك ينظر الإنسان نفسه من حيث هو على صورة الحق لا من حيث هو على صورة العالم و إن كان العالم على صورة الحق و لما كان الترتيب على ما وقع عليه الوجود لتاخر النشأة الجسمية الإنسانية عن العالم فكانت آخرا فظهرت في نشأتها على صورة العالم و ما كان العالم على الكمال في صورة الحق حتى وجد الإنسان فيه فبه كمل العالم فهو الأول بالمرتبة و الآخر بالوجود فالإنسان من حيث رتبته أقدم من حيث جسميته فالعالم بالإنسان على صورة الحق و الإنسان دون العالم على صورة الحق و العالم دون الإنسان ليس على الكمال في صورة الحق و لا يقال في الشيء إنه على صورة كذا حتى يكون هو من كل وجوهه إلا الذي لا يمكن أن يقال فيه هو كما قلنا في جيم إنه ألف لكونه با و الباء ألف و لكن قد تميز عين كل واحد بأمر ليس هو عين الآخر و هو كون الألف ألف و الباء باء و الجيم جيم كذلك الحق حق و الإنسان إنسان و العالم عالم و قد بان ذلك بالتساوي فإنه إن لم تكن ثم حقيقة يقع بها تميز الأعيان لم يصح أن تقول كذا مساو لكذا بل تقول عين كذا


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