الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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من قوة المضمرات و لما وقع في الكون التشبيه و الاشتراك في الصور بحيث أن يغيب أحد الشخصين و يحضر الآخر فيتخيل الناظر إلى الحاضر أن الحاضر عين الغائب وضع اللّٰه في العالم الإشارات في الإخبارات و الضمائر لارتفاع هذا اللبس و الفصل بين ما هو و بين من يظهر بصورته و اعتمدوا عليه و لما أخبر اللّٰه تعالى أن الإنسان مخلوق على الصورة قال عيسى ع ﴿كُنْتَ أَنْتَ الرَّقِيبَ عَلَيْهِمْ﴾ [المائدة:117] ففصل بين الحق و بين من هو على الصورة فكأنه قال كنت من حيث عينك لا من هو على صورتك الرقيب عليهم فناب أنت في هذا الموضع مناب العين المقصودة و لنا جزء في هذه الأسماء المضمرات سميناه كتاب الهو و هو جزء حسن بالغنا فيه في هذه الأسماء المضمرة و هي تقبل كل صورة قديمة و حديثة لتمكنها و علو مقامها و العالم و إن تكثر فهو راجع إلى عين واحدة

فكل من في الوجود حق *** و كل من في الشهود خلق

فانظر إلى حكمة تجلت *** في عين حق يحويه حق

فالعبد محق و الحق محق *** فليس حق و لا محق

فيا ولي لا تعطل زمانك في النظر في الحركات و تحقيقها فإن الوقت عزيز و انظر إلى ما نتجه فاعتمد عليه بما يعطيك من حقيقته فإنك إن كنت نافذ البصيرة عرفت من عين النتيجة عين الحركة و المحرك فإن الحركة حقيقة العين و المحرك من وراء حجاب الكون و النتيجة ظاهرة سافرة معربة عن شأنها فاعتمد عليها فهذه نصيحتي لك يا ولي و لهذا ما نسب الحق إلى نفسه انتقالا إلا و ذكر النتيجة ليعرفك ما هو عين الانتقال المنسوب إليه في نازلة ما مثل «قوله ينزل ربنا إلى السماء الدنيا في الثلث الباقي من الليل ثم ذكر النتيجة فقال فيقول هل من تائب هل من داع هل من مستغفر» و قال مثل هذا كثيرا ليريح عباده من تعب الفكر و الاعتذار فإن المقصود من الحركات ما تنتج لا أعينها و كذا كل شيء فالمبتدأ لو لا الخبر ما كان له فائدة و لكان عبثا الإتيان به و من هنا يعرف قوله ﴿أَ فَحَسِبْتُمْ أَنَّمٰا خَلَقْنٰاكُمْ عَبَثاً﴾ [المؤمنون:115] و قوله ﴿وَ مٰا خَلَقْنَا السَّمٰاءَ وَ الْأَرْضَ وَ مٰا بَيْنَهُمٰا بٰاطِلاً﴾ [ص:27] و من هنا يقع التنبيه على معرفة الحكمة التي أوجد اللّٰه لها العالم و أن اسمه الحق تعالى حق و قوله ﴿فَإِنَّ اللّٰهَ غَنِيٌّ عَنِ الْعٰالَمِينَ﴾ [آل عمران:97] إن معناه غني عن وجوده لا عن ثبوته فإن العالم في حال ثبوته يقع به الاكتفاء و الاستغناء عن وجوده لأنه و في الألوهة حقها بإمكانه و لو لا طلب الممكنات و افتقارها إلى ذوق الحالات و أرادت أن تذوق حال الوجود كما ذاقت حال العدم فسألت بلسان ثبوتها واجب الوجود أن يوجد أعيانها ليكون العلم لها ذوقا فأوجدها لها لا له فهو الغني عن وجودها و عن إن يكون وجودها دليلا عليه و علامة على ثبوته بل عدمها في الدلالة عليه كوجودها فأي شيء رجح من عدم أو وجود حصل به المقصود من العلم بالله فلهذا علمنا إن غناه سبحانه عن العالم عين غناه عن وجود العالم و هذه مسألة غريبة لاتصاف الممكن بالعدم في الأزل و كون الأزل لا يقبل الترجيح و كيف قبله عدم الممكن مع أزليته و ذلك أنه من حيث ما هو ممكن لنفسه استوى في حقه القبول للحكمين فيما يفرض له حال عدم إلا و يفرض له حال وجود فما كان له الحكم فيه في حال الفرض فهو مرجح فالترجيح ينسحب على الممكن أزلا في حال عدمه و إنه منعوت بعدم مرجح و الترجيح من المرجح الذي هو اسم الفاعل لا يكون إلا بقصد لذلك و القصد حركة معنوية يظهر حكمها في كل واحد بحسب ما تعطيه حقيقته فإن كان محسوسا فرغ حيزا و شغل حيزا و إن كان معقولا أزال معنى و أثبت معنى و نقل من حال إلى حال و في هذا المنزل من العلوم علوم شتى منها علم الدعاء المقيد و الدعاء المطلق و ما ينبغي أن يقال لكل مدعو و يعامل به و منها علم الحركات و أسبابها و نتائجها و منها علم منزلة من تكلم فيما لا يعلم و يتخيل أنه يعلم هل ما تكلم به علم في نفس الأمر أم ليس بعلم أم يستحيل أن يكون إلا علما لكن لا يعلمه هذا المتكلم و هل ظهر مثل هذا في العالم و هو خلق لله لتمييز المراتب فيعلم به مرتبة الجهل من العلم و الجاهل من العالم أو ما ثم إلا علم و منها علم تعيين من جعل اللّٰه الحيرة في العالم على يديه و هل الحيرة تعطي سعادة على الإطلاق أو شقاوة أو فيها تفصيل منها ما يعطي سعادة و منها ما يعطي شقاوة و هل المتحير فيه هل كونه متحيرا فيه اسم مفعول لذاته أم يمكن أن لا يتحير فيه و فيه علم سبب الاحتراق الذي يجده صاحب الحيرة في باطنه في حال حيرته و هل إذا علم الحائر أن الذي تحير فيه


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