الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

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مرتبته في قلب الملك قبل طلب تلك الحاجة و وزنتها بعد طلب الحاجة نقصت عنها بقدر ما طلب فصفة الحق تعالى حيثما ظهرت محبوبة مطلوبة عند الناس الذين لا يفرقون بين ظهورها عند من يستحقها و بين ظهورها عند من لا يستحقها و لو علم هذا الجاهل أن أفقر الناس إلى المال أكثرهم مالا و ذلك أن صاحب الفقر المدقع محتاج بالضرورة إلى ما يسد به خلته فهو فقر ذاتي و الغني بالمال مع كثرة ماله بحيث لو قسمه على عمره و عمر بنيه و حفدته لكفاهم و مع هذا يترك أهله و ولده و يسافر بماله و يخاطر به في البحار و الأعداء و قطع المفازات إلى البلاد القاصية شرقا و غربا في اقتناء درهم زائد على ما عنده لشدة فقره إليه و ربما هلك في طلب هذه الزيادة و غرق ماله أو أخذ و ربما استؤسر في سفره أو قتل و مع هذه المعضلات كلها لا يترك سفرا في طلب هذه الزيادة فلو لا جهله و شدة فقره ما خاطر بالأنفس في طلب الأخس فالفقير الزاهد يرى أن هذا الغني أفقر منه بكثير و هو في فقره مذموم و أن هذا الزاهد لو لا غناه بربه عن هذه الأعراض لكان أشد حرصا في طلبها من التجار و الملوك و لنا في هذا المعنى أبيات منها

بالمال ينقاد كل صعب *** من عالم الأرض و السماء

يحسبه عالم حجابا *** لم يعرفوا لذة العطاء

لو لا الذي في النفوس منه *** لم يجب اللّٰه في دعاء

لا تحسب المال ما تراه *** من عسجد مشرق الراء

بل هو ما كنت يا بنيي *** به غنيا عن السواء

فكن برب العلا غنيا *** و عامل الحق بالوفاء

و لنا فيه أيضا من قصيدة

المال يصلح كل شيء فاسد *** و به يزول عن الجواد عثارة

و هذه طريقة أغفلها أهل طريقنا و رأوا أن الغني بالله تعالى من أعظم المراتب و حجبهم ذلك عن التحقيق بالتنبيه على الفقر إلى اللّٰه الذي هو صفتهم الحقيقية فجعلوها في الغني بالله بحكم التضمين لمحبتهم في الغني الذي هو خروج عن صفتهم و الرجل إنما هو من عرف قدره و تحقق بصفته و لم يخرج عن موطنه و أبقى على نفسه خلعة ربه و لقبه و اسمه الذي لقبه به و سماه فقال ﴿أَنْتُمُ الْفُقَرٰاءُ إِلَى اللّٰهِ وَ اللّٰهُ هُوَ الْغَنِيُّ الْحَمِيدُ﴾ [فاطر:15] فلرعونة النفس و جهالتها أرادت أن تشارك ربها في اسم الغني فرأت إن تتسمى بالغنى بالله و تتصف به حتى ينطلق عليها اسم الغني و تخرج عن اسم الفقير فانظر ما بين الرجلين و ما رأيت أحدا من أهل طريقنا أشار إلى ما ذكرناه أصلا من غوائل النفوس المبطونة فيها إلا اللّٰه تعالى فهو الذي نبه عباده عليها و بعد هذا فما سمعوا و تعاموا و كم جهدت أن أرى لأحد في ذلك تنبيها عليه فما وجدت و أسأل من اللّٰه تعالى أن لا يجعلنا ممن انفرد بها و أن يشاركنا فيها إخواننا من العارفين و أما أصحابنا فإنهم أخذوها عنا و تحققوا بها في نفوسهم و ما بقي عليهم فيها إلا التخلق بها و أن تكون صفتهم دائما و لكن بعد أن عرفنا أولادنا فعرفوا هذه المرتبة و تنبهوا إلى ما جهل الناس من العارفين من ذلك فقد حصل لهم خير كثير منعهم هذا القدر إن يسيئوا الأدب مع اللّٰه تعالى

[ من إساءة الأدب في طريق اللّٰه تعالى]

و من إساءة الأدب في طريق اللّٰه تعالى و هو مما يستدرج اللّٰه به العارفين عزة الشيوخ على أتباعهم من المريدين بما افتقروا إليهم فيه من التربية و امتيازهم عنهم فإن الشيخ إذا لم يوف هذا المقام حقه يحجبه فقر المريد إليه عن فقره إلى ربه حالا و يكون مشهده عند ذلك غناه بالله و الغني بالله يطلب العزة و حال المحقق صاحب هذا المقام إذا رأى المريدين يفتقرون إليه فيما عنده من اللّٰه شكر اللّٰه على ذلك حيث ألزم اللّٰه به فقراء إليه يثبتونه بصفة فقرهم إليه على فقره إلى اللّٰه تعالى فإنه ربما لو لم يظهر صفة فقرهم إليه نسي فقره إلى اللّٰه تعالى فهكذا هو حال الشيخ المحقق فينظر هذا الشيخ المريدين المفتقرين إليه بعين من يثبته على طريقه لئلا تزل به القدم فيه فهو كغريق وجد من يأخذ بيده كيف يكون حب ذلك الغريق فيه حيث أمسك عليه حياته فيرى هذا الشيخ حق المريد عليه أعظم من حقه على المريد فالمريد هو شيخ الشيخ بالحال و الشيخ هو شيخ المريد بالقول و التربية و إن كنت عاقلا فقد نبهتك على الطريق الأنفس فاعمل عليه فما أبقيت لك في النصيحة و لنا

أنا عبد و الذل بالعبد أولى *** لا أراني للعز بالحق أهلا

فانظروني فكلما قلت قولا *** كان قولي حالا و عقدا و فعلا


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