الفتوحات المكية

الفتوحات المكية - طبعة بولاق الثالثة (القاهرة / الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
 

الصفحة - من الجزء (عرض الصورة)


futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 324 - من الجزء 3

لا ضيق و لا حرج إلا في المحسوس و الألوهية خاصة و لهذا لا يتعلق حكم الغيرة إلا بهذين المقامين فأما المحسوس فلحصره فإنه إذا كان عندك لم يكن عين ما هو عندك عند غيرك و أما في الألوهية فإن المدعي فيها كاذب و من هي له صادق فمتعلق الغيرة كون من ليست فيه الألوهية و يدعيها كاذبا فالغيرة على المقام فإنها لا تكون إلا لواحد ليس لغيره فيها قدم و الغيرة مشتقة من الغير فهذا قد أبنت لك عن سواء السبيل

[أن أطيب ما يورث من العلم ما يرثه العالم]

و اعلم أن أطيب ما يورث من العلم ما يرثه العالم من الأسماء الإلهية فإن قلت و كيف تورث الأسماء الإلهية و لا يكون الورث إلا بعد موت قلنا و كذلك أقول فاعلم أني أريد بهذا النوع من العلم كون الحق سبحانه قادرا على إن يفعل ابتداء ما لا يفعله و لا وقع إلا منك كما قد بينا إنك آلة له تعالى فلما كان منك و لا بد ما يمكن أن يكون له دونك و من المحال أن يكون لما هو منك كونان فإن الكائن لا يقبل كونين بل هو وجود واحد فينزل هذا القدر من الكون الظاهر منك مما كان له منزلة المال الموروث ممن كان له إذ يستحيل أن يكون له مع موته كما استحال أن يكون هذا الكائن عن غير من كان عنه فتحقق هذه النكتة فإنها عجيبة في أصحاب الأذواق لا في أحكام العقل

[الاسم الإلهي الحي]

و اعلم أنه لما لم يتمكن أن يتقدم الاسم الحي الإلهي اسم من الأسماء الإلهية كانت له رتبة السبق فهو المنعوت على الحقيقة بالأول فكل حي في العالم و ما في العالم إلا حي فهو فرع عن هذا الأصل و كما لا يشبه الفرع الأصل بما يحمله من الثمر و ما يظهر منه من تصريف الأهواء له على اختلافها عليه و ما يقبل من حال التعرية و اللباس إذا أورق و تجرد عن ورقه و الأصل ليس كذلك بل هو الممد له بكل ما يظهر فيه و به إذ ليس له بقاء في فرعيته و أحكامها إلا بالأصل كذلك الاسم الحي مع سائر الأسماء الإلهية فكل اسم هو له إذا حققت الأمر فيسري سره في جميع العالم فخرج على صورته فيما نسب إليه من التسبيح بحمده و التسبيح تنزيه و التنزيه تعرية و كذلك الأصل معرى عن ملابس الفروع و زينتها من ورق و ثمر و كل ذلك منه و هو منزه في ذاته عن أن تقوم به فقد أعطى ما لا يقوم به و لا يكون صفة له و هذا علم لا يمكن أن يحصل إلا لصاحب كشف و إذا حصل له لا يمكن أن يقسم العالم إلى حي و إلى غير حي بل هو عنده كله حي و لكن تنسب عندنا الحياة لكل حي بحسب حقيقة المنعوت بها المسمى عند أهل الكشف و الشهود لا عند من لا يرى الحياة إلا في غير الجماد و النامي في نظره ليس كلامنا إلا مع أهل الكشف الذين أشهدهم اللّٰه الأمر على ما هو عليه في نفسه فاعلم ذلك و اعلم أنه لما كان الاسم الحي اسما ذاتيا للحق سبحانه لم يتمكن أن يصدر عنه إلا حي فالعالم كله حي إذ عدم الحياة أو وجود موجود من العالم غير حي لم يكن له مستند إلهي في وجوده البتة و لا بد لكل حادث من مستند فالجماد في نظرك هو حي في نفس الأمر و أما الموت فهو مفارقة حي مدبر لحي مدبر فالمدبر و المدبر حي و المفارقة نسبة عدمية لا وجودية إنما هو عزل عن ولاية ثم إنه ما من شرط الحي أن يحس فإن الإحساس و الحواس أمر معقول زائد على كونه حيا و إنما من شرطه العلم و قد يحس و قد لا يحس و لو أحس فليس من شرط الإحساس وجود الآلام و اللذات فإن العلم يغني عن ذلك مع كون العالم لا يحس بما جرت العادة أنه لا يدرك إلا بالحس و أنت تعلم و جميع العقلاء أن اللّٰه عالم بكل شيء مع تنزيهه عن الإحساس و الحواس فلحصول العلم طرق كثيرة عند من يستفيد علما و الحس طريق موصلة إلى العلم بالمحسوس فقد يوصل إلى العلم به من غير طريق الحس فيكون معلوما في الحالتين لكنه لا يكون محسوسا لمن علمه من غير طريق الحس لكنه هو له مشهود و معلوم كما لا نشك أنا نرى ربنا بالأبصار عيانا على ما يليق بجلاله و هو مرئي لنا و لا نقول فيه إنه محسوس لما يطلبه الحس من الحصر و التقييد فهذه رؤية غير مكيفة و كلامنا في هذا مع من يقول بالرؤية بالبصر و لا نقول بالكيف و لا الحصر و التقييد بل نراه منزها كما علمناه منزها و قد قدمنا في غير موضع من هذا الكتاب تصويب كل اعتقاد و صحة كل مقالة عقلية في اللّٰه و أما المقالات الشرعية المنزلة من اللّٰه فيه فالإيمان بها واجب و ما جاءت لتخالف العقل فإنها قد جاءت بموافقة العقل في ﴿لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ﴾ [الشورى:11] و قد جاءت بما لا يقبله دليل العقل من حيث نظره فزاد علما به لم يكن ليستقل به قبله بإيمانه إن كان عن خبر أو بذوقه إن كان عن شهود و سلمنا له ما وصف به نفسه من كل ما لا يستقل به العقل من حيث انفراده بذلك في نظره لكوننا لا نحيط علما بذاته لا بل لا نعلمها رأسا و لما كانت الأعيان في الوجود لها اتصال بعضها ببعض و لها انفصال بعضها عن بعض جعل


مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 7519 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 7520 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 7521 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 7522 من مخطوطة قونية
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 7523 من مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لطبعة القاهرة (دار الكتب العربية الكبرى) - المعروفة بالطبعة الميمنية. وقد تم إضافة عناوين فرعية ضمن قوسين مربعين.

 

الصفحة - من الجزء (اقتباسات من هذه الصفحة)

[الباب: ] - (مقاطع فيديو مسجلة لقراءة هذا الباب)

البحث في كتاب الفتوحات المكية

الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!