The Meccan Revelations: al-Futuhat al-Makkiyya

Volume number (out of 37): [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4241 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

أي لا تتفكروا فيها و سبب ذلك ارتفاع المناسبة بين ذات الحق و ذات الخلق و أهل اللّٰه لما علموا مرتبة الفكر و أنه غاية علماء الرسوم و أهل الاعتبار من الصالحين و أنه يعطي المناسبات بين الأشياء تركوه لأهله و أنفوا منه أن يكون حالا لهم كما سيأتي في باب ترك الفكر

[كيف يفوز صاحب الفكر بالصواب مع أن الفكر حال لا يعطى العصمة]

و الفكر حال لا يعطي العصمة و لهذا مقامه خطر لأن صاحبه لا يدري هل يصيب أو يخطئ لأنه قابل للاصابة و الخطاء فإذا أراد صاحبه أن يفوز بالصواب فيه غالبا في العلم بالله فليبحث عن كل آية نزلت في القرآن فيها ذكر التفكر و الاعتبار و لا يتعدى ما جاء من ذلك في غير كتاب و لا سنة متواترة فإن اللّٰه ما ذكر في القرآن أمرا يتفكر فيه و نص على إيجاده عبرة أو قرن معه التفكر إلا و الإصابة معه و الحفظ و حصول المقصود منه الذي أراده اللّٰه لا بد من ذلك لأن الحق ما نصبه و خصه في هذا الموضع دون غيره إلا و قد مكن العبد من الوصول إلى علم ما قصد به هناك فقد ألقيت بك على الطريق و هكذا وجده أهل اللّٰه

[التزم الموضوعات التي نصبها الحق ميدانا للفكر و لا تتعد بالأمور مراتبها و لا تعدل بالآيات إلى غير منازلها]

فإن تعديت آيات التفكر إلى آيات العقل أو آيات السمع أو آيات العلم أو آيات الايمان و استعملت فيها الفكر لم تصب جملة واحدة فالتزم الآيات التي نصبها الحق لقوم يتفكرون و لا تتعدى بالأمور مراتبها و لا تعدل بالآيات إلى غير منازلها و إذا سلكت على ما قلته لك حمدت مسعاك و شكرتني على ذلك فابحث على كل آية عبرة و تفكر تسعد إن شاء اللّٰه تعالى و كذلك الآيات التي فيها النظر من هذا الباب الفكري مثل قوله تعالى ﴿أَ فَلاٰ يَنْظُرُونَ إِلَى الْإِبِلِ كَيْفَ خُلِقَتْ﴾ [الغاشية:17] و مثل قوله ﴿أَ وَ لَمْ يَنْظُرُوا فِي مَلَكُوتِ السَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضِ﴾ [الأعراف:185] و كذلك ﴿أَ لَمْ تَرَ كَيْفَ فَعَلَ رَبُّكَ بِأَصْحٰابِ الْفِيلِ﴾ [الفيل:1]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


Please note that some contents are translated from Arabic Semi-Automatically!