الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿آسَفُونٰا﴾ [الزخرف:55] أ لا ترى إلى علم فرعون في قوله ﴿فَلَوْ لاٰ أُلْقِيَ عَلَيْهِ أَسْوِرَةٌ مِنْ ذَهَبٍ﴾ يقول فلو و هو حرف تحضيض أعطى يعني موسى نفوذ الاقتدار فينا حتى لا ننازعه و نسمع له و نطيع لأن اليدين محل القدرة و الأسورة و هو شكل محيط من ذهب أكمل ما يتحلى به من المعادن و نفوذ الاقتدار من الاختصاص الإلهي يقول لقومه فما أعطى ذلك موسى و الذي يدلك على ما قلناه إن فرعون أراد هذا المعنى في هذا القول أنه جاء بأو بعده و هي حرف عطف بالمناسب فقال ﴿أَوْ جٰاءَ مَعَهُ الْمَلاٰئِكَةُ مُقْتَرِنِينَ﴾ [الزخرف:53] لعلمه بأن قومه يعلمون أن الملائكة لو جاءت لانقادوا إلى موسى طوعا و كرها يقول فرعون فلم يكن لموسى عليه السّلام نفوذ اقتدار في حتى أرجع إلى قوله من نفسي بأمر ضروري لا نقدر على دفعه فترجعوا إلى قوله لرجوعي و لا جاء معه من يقطع باقتدارهم ﴿فَاسْتَخَفَّ قَوْمَهُ﴾ [الزخرف:54] أي لطف معناهم بالنظر فيما قاله لهم فلما جعل فيهم هذا حملهم على تدقيق النظر في ذلك و لم يكن لهم هذه الحالة قبل ذلك فأطاعوه ظاهرا بالقهر الظاهر لأنه في محل يخاف و يرجى و باطنا بما نظروا فيه مما قاله لهم فلما أخذ قلوبهم بالكلية إليه و لم يبق لله فيهم نصيب يعصمهم أغضبوا اللّٰه فغضب فانتقم فكان حكمهم في نفس الأمر خلاف حكم فرعون في نفسه فإنه علم صدق موسى عليه السّلام و علم حكم اللّٰه في ظاهره بما صدر منه و حكم اللّٰه في باطنه بما كان يعتقده من صدق موسى فيما دعاهم إليه و كان ظهور إيمانه المقرر في باطنه عند اللّٰه مخصوصا بزمان مؤقت لا يكون إلا فيه و بحالة خاصة فظهر بالإيمان لما جاء زمانه و حاله فغرق قومه آية و نجا فرعون ببدنه دون قومه عند ظهور إيمانه آية فمن رحمة اللّٰه بعباده أن قال ﴿فَالْيَوْمَ نُنَجِّيكَ بِبَدَنِكَ﴾ [يونس:92]



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