The Meccan Revelations: al-Futuhat al-Makkiyya

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﴿وَ أَمّٰا مَنْ خٰافَ مَقٰامَ رَبِّهِ»﴾

مقام الرب ليس له أمان *** يدل عليه ما يعطي العيان

فخفه لأنه خطر و فيه *** إذا ما خفته حالا امان

و نفسك فانهها عن كل أمر *** يضيق لهو له منك الجنان

فلا تعتب زمانا أنت فيه *** فأنت هو المعاتب و الزمان

و لا تعمر مكانا لست فيه *** فرب الدار ليس له مكان

فأنت كهو فأنت له جليس *** و مؤنسك التعطف و الحنان

و فيها الخلد و الحور الحسان *** لذاك يقال منزلنا الجنان

اعلم أيدنا اللّٰه و إياك أن المقام الإلهي الرباني ما وصف به نفسه و لما علمه ﷺ حين أعلمه لذلك استعاذ به منه فقال و أعوذ بك منك

[أن لله التجلي في صور الاعتقادات]

اعلم أن كل مقام سيد عند كل عبد ذي اعتقاد إنما هو بحسب ما ينشئه في اعتقاده في نفسه و لهذا قال اللّٰه ﴿مَقٰامَ رَبِّهِ﴾ [الرحمن:46] فأضافه إليه و ما أطلقه و ما تجد قط هذا الاسم الرب إلا مضافا مقيد إلا يكون مطلقا في كتاب اللّٰه فإنه رب بالوضع و الرب من حيث دلالته أعني هذا الاسم هو الذي يعطي في أصل وضعه أن يسع كل اعتقاد يعتقد فيه و يظهر بصورته في نفسه معتقده فإذا كان العارف عارفا حقيقة لم يتقيد بمعتقد دون معتقد و لا انتقد اعتقاد أحد في ربه دون أحد لوقوفه مع العين الجامعة للاعتقادات ثم إنه إذا وقف مع العين الجامعة للاعتقادات كلها فيه فيخاف إن يكون هذا القدر الذي اعتقده واحد مثل كل ذي اعتقاد في الرب فيتخيل أنه مع الرب و هو مع ربه لا مع الرب مع كونه بهذه المثابة في تسريحه و عدم تقييده و قوله به في كل صورة اعتقاد و إيمانه بذلك فلا يزال خائفا حتى يأتيه ﴿اَلْبُشْرىٰ فِي الْحَيٰاةِ الدُّنْيٰا﴾ [يونس:64] بأن الأمر كما قال فهذا حد إطلاق العبد في الاعتقاد و لو لم يكن الحق له هذا السريان في الاعتقادات لكان بمعزل و لصدق القائلون بكثرة الأرباب و قد ﴿قَضىٰ رَبُّكَ أَلاّٰ تَعْبُدُوا إِلاّٰ إِيّٰاهُ﴾ [الإسراء:23] في كل معتقد إذ هو عين كل معتقد ثم نصب اللّٰه لهذا العارف دليلا من نفسه بتحوله في نفسه في كل صورة و قبوله في ذاته عند إنشاء كل صورة ينشئها هذا المعتقد في قوله تعالى



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