The Meccan Revelations: al-Futuhat al-Makkiyya

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اعلم أن الرياضة عند القوم من الأحوال و هي قسمان رياضة الأدب و رياضة الطلب

فرياضة الأدب

عندهم الخروج عن طبع النفس

و رياضة الطلب

هي صحة المراد به أعني بالطلب و عندنا الرياضة تهذيب الأخلاق فإن الخروج عن طبع النفس لا يصح و لما كان لا يصح بين اللّٰه لذلك الطبع مصارف فإذا وقفت النفوس عندها حمدت و شكرت و لم تخرج بذلك عن طبعها فرياضتها اقتصارها على المصارف التي عينها لها خالقها فإن عين الشيء المزاجي ليس غير مزاجه فلو خرج الشيء عن طبعه لم يكن هو و لهذا يكون قول من قال رياضة الطلب صحة المراد به فإنه إذا كان الشيء مرادا به أمر ما و المريد لذلك الأمر هو موجد ذلك الشيء و قد عينه له و عرفه به و إن ذلك القدر يريد منه فتصرف فيه بطبعه على ذلك الحد كان صاحب رياضة لأنه لو تصرف في نقيض ما أريد منه لكان تصرفه فيه بطبعه أيضا فما كان التهذيب فيه إلا صرفه عن الإطلاق في التصرف إلى التقييد فإن أراد صاحب القول في رياضة الأدب أنه الخروج عن طبع النفس بمعنى ما كان لها فيه التصرف مطلقا صار مقيدا فحمل هذا الشخص نفسه على ما قيدها به خالقها من التصرف فيه و دخلت تحت التحجير بعد ما كانت مسرحة فهو الذي ذكرناه و إن أراد غير ذلك فليس إلا ما قلناه و ذلك أن الرياضة تذليل النفس و إلحاقها بالعبودية و لذا سميت الأرض أرضا و ذلولا فالرياضة عندنا من صير نفسه أرضا أي مثل الأرض يطئوها البر و الفاجر و لا يؤثر عندها تمييزا بل تحمل البار حبا لما هو عليه من مراضي سيده و تحمل الفاجر حمل اللّٰه إياه بكونه يرزقه على كفره بنعمه و جحده إياها و نسيان رب النعمة فيها و إلى الرياضة يرجع مسمى الرضي على الحقيقة إن تفطنت لأن النفس تطلب بذاتها الكثير من الخير لأن الأصل على ذلك فإن اللّٰه تعالى ما طلب إلا الممكنات و هي غير متناهية و لا أكثر مما لا يتناهى و ما لا يتناهى لا يدخل في الوجود دفعة و لكن يدخل قليلا قليلا لا إلى نهاية فإذا نسبت إليه ما توجه إليه طلبه من الكثرة ثم رضي من ذلك باليسير و التدريج لعلمه أن ما لا يتناهى لا يمكن حصوله في الوجود رضي بذلك القدر الذي يدخل منه فمتعلق الرضي لا يكون إلا بالقليل و لا يكون مخلوق بأعظم قدرا من خالقه و إذا كانت هذه صفة الحق فهي بالعبد أولى فما عند اللّٰه لا يتناهى و مطلب هذا العبد من اللّٰه ما عنده و لا يتمكن دخوله في الوجود إلا قليلا قليلا لا إلى نهاية فرضي بذلك القدر العبد و هو قليل بالنسبة إلى متعلق علمه بما عند اللّٰه فرضي عن الحق و رضي الحق عنه فوقع الاقتصار من العالم بما لا يتناهى على ما أعطى من ذلك مما يتناهى رياضة منه عن مطلق تعلق علمه من ذلك إذ قد علم أيضا أن ما لا يتناهى لا يدخل في الوجود فحقيقة الرياضة ترجع إلى هذا لأن الآدمي لما خلق على الصورة زهت نفسه و تخيلت أن التحجير لا يصح على من له العزة و ما علمت أن العزة تحجير فإن العزة حمى و الحمى تحجير فعين ما ادعت به الإطلاق ذلك بعينه قيدها فلما أشهدها الحق حضرة عزه و نفوذ اقتداره و مع نفوذ اقتداره لم يعطه الإمكان من نفسه إلا قدر ما يحصل منه في الوجود انكسرت النفس و صار ما كانت تصول به أورثها ما أشهدها ذلة و انكسارا فإنها تقبل الذلة لجهلها فارتاضت و الحق لعلمه على عزه فرياضة العلم أنفع الرياضات فما أزالها العلم عن الصورة و لكن أولا جهلت ما هي الصورة عليه و ما هي الحقائق عليه فما أشرف العلم لو لم يكن من شرف العلم إلا تجلى الحق في صورة تنكر ثم تحوله في صورة تعرف و هو هو في الأولى و الثانية و إن موطن تلك المشاهدة لا يتمكن في نفس الأمر إلا أن تكون مقيدة لأن الذي يشهد و هو عين العبد مقيد بإمكانه فلا يتمكن له شهود الإطلاق و لا بد من الشهود فظهر له المشهود مقيدا بالصورة و مقيدا بالتحول في الصور و لأنه مقيد بالوجوب الذاتي فالكل في عين التقييد إن عقلت عنا و إنما تقيد بالتحول ليفتح له في نفسه العلم بأن الأمر لا يتناهى و ما لا يتناهى لا يدخل تحت التقييد فإنه من قبل التحول إلى صورة من صورة قبل التحول إلى صور لا نهاية لها أو إلى صور لا يمكن لذلك المتحول أن يتجاوزها إلى غيرها فخرج عن حد التقييد بالتقييد ليعلم أن مشهوده مطلق الوجود فيكون شهوده أيضا مطلقا إطلاق مشهوده فأفاده التحول من صورة إلى صورة علما لم يكن عنده فعلم عند ذلك أن اللّٰه هو الحق المبين فأعلى رياضة العبد العالم أن لا ينكره في صورة و لا يقيده بتنزيه بل له التنزيه على الإطلاق عن تنزيه التقييد «بسم اللّٰه الرحمن الرحيم»

«الباب الرابع و مائتان في التحلي بالحاء المهملة»



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