الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 8143 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

كما لم يسو تعالى بين الذين يعلمون و الذين لا يعلمون فالكامل من العباد من لم يترك لله عليه و لا عنده حقا إلا وفاه إياه في كل شيء له فيه نصيب أعطاه نصيبه على حد ما شرع له فإذا وفاه رد عليه جميع ما ذكر أنه له بالشرع فإذا و في اللّٰه له بعهده فيأخذه منه امتناع و ابتداء فضل لا جزاء و لا يكون هذا إلا من العلماء بالله الذين يعلمون الأمر على ما هو عليه و هم أفراد من الخلق لا يعلمهم إلا هو فقد نبهتك على أكمل الطرق في نيل السعادة التي ما فوقها سعادة و مع هذا يا حي و بعده فالأمر عظيم و الخطب جسيم و الإشكال فيه أعظم و لهذا جعل أهل اللّٰه الغاية في الحيرة و هو العجز و هذا القدر كاف في العلم بأن اللّٰه حقا و نصيبا عند عباده يطلبه منهم بحكم الاستحقاق و يطلب منهم أيضا حقوق الغير بحكم الوكالة كما قال ﴿وَ يَأْخُذُ الصَّدَقٰاتِ﴾ [التوبة:104] بحكم الوكالة فيربيها و يثمرها فهو وكيل في حق قوم تبرعا من نفسه رحمة بهم و إن لم يوكلوه و في حق قوم وكيل بجعلهم كما أمرهم أن يتخذوه وكيلا و إلا فليس للعبد من الجرأة أن يوكل سيده فلما تبرع بذلك لعباده و نزل إليهم عن كبريائه بلطفه الخفي اتخذوه وكيلا و أورثهم هذا النزول إدلالا و أما حديث ما يقبل اللّٰه من صلاة عبده إلا ما عقل يريد أنه يعضد أداء حق اللّٰه تعالى فيما تعين عليه و جعل أكثره النصف و هو الحد الذي عينه له من صلاة عبده و أقله العاشر فقال عشرها تسعها ثمنها سبعها سدسها خمسها ربعها ثلثها نصفها و ما ذكر النصف إلا في الفاتحة فعلمنا المعنى فعممناه في جميع أفعال الصلاة و أقوالها بل في جميع ما كلفنا من الأعمال به فأما ما عينه فهو ما انحصرت فيه الفاتحة و هي تسعة أقسام القسم الأول ﴿بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيمِ﴾ [الفاتحة:1] الثاني ﴿اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰالَمِينَ﴾ [الفاتحة:2] الثالث



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!