الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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فقال بعد إقراره بربوبية خالقه لما أشهده على نفسه في أخذ الميثاق حين قال له و لأمثاله ﴿أَ لَسْتُ بِرَبِّكُمْ قٰالُوا بَلىٰ﴾ [الأعراف:172] فلما أوجده في هذه الدنيا أوجده على تلك الفطرة فقال بألوهية الأسباب التي رزقه اللّٰه منها و جعلها حجبا بينه و بين اللّٰه و لم يكن له نور يهتدى به في ظلمات البر و البحر و ليس إلا النجوم و هي هنا نجوم العلم الإلهي فأضاف الألوهة إلى غير مستحقها فكذب في دعواه لكثرة الأسباب و إقراره في شركه بأن ذلك قربة منه إلى اللّٰه خالق الأسباب و جعلها آلهة فلم يصدق قوله لا إله إلا هو و لهذا قال من قال ﴿أَ جَعَلَ الْآلِهَةَ إِلٰهاً وٰاحِداً إِنَّ هٰذٰا لَشَيْءٌ عُجٰابٌ﴾ [ص:5] و ليس العجب إلا ممن كثر الآلهة و الذي لم يقل بنسبة الألوهة للأسباب لكنه لم ير إلا الأسباب و ما حصل له من الكشف ما يخرجه عنها مع توحيد الألوهة كان ذلك شركا خفيا لا يشعر به صاحبه أنه شرك يحجبه عن الأمر العالي الذي طلب به فلم يوجد صاحب هذه الدعوى في توحيد اللّٰه و توحيده في أفعاله مع الاضطراب عند فقد السبب و سكونه عند وجوده صادقا فنقصه على قدر ما فاته من ذلك هذا و لم يجعل للأسباب آلهة فإن قلت فالمشرك الذي ادعى أنه مشرك فهو صادق في دعواه إنه مشرك فلما ذا لم ينفعه صدقه قلنا هو كاذب في دعواه في نسبة الألوهة إلى من ليس بالإله هذه دعواه التي كفر بها فهو صادق في أنه مشرك و ليس بصادق في إن الشركة في الألوهة صحيحة لأنه بحث عن ذلك بأدلة العقلية و الشرعية فلم يوجد لما ادعاه عين في الصدق فاختبر اللّٰه العباد بما شرع لهم بإرسال الرسل و اختبر اللّٰه المؤمنين بالأسباب فكل صنف اختبره بحسب دعواه فمن صدق أورثه ذلك الصدق ما تعطيه دعواه و لهذا يسأل ﴿اَلصّٰادِقِينَ عَنْ صِدْقِهِمْ﴾ [الأحزاب:8]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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