الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

هذا هو الأمر الذي لا يمكن للممكن المأمور به مخالفته لا الأمر بالأفعال و التروك يعرف ذلك العارفون من عبادك ذوقا و شهودا فإن أمرت الفعل المأمور به أن يتكون في هذا العبد المأمور بالفعل تكون فتقول هذا عبد طائع امتثل أمري و ما بيده من ذلك شيء فالصمت حكم و قليل فاعله فمن تكلم بالله كانت الحجة له فإن الحجة البالغة لله و من تكلم بنفسه كان محجوبا كما إن الحق إذا تكلم بعبده كان كلامه ظاهرا بحيث يقتضيه مقام عبده فإذا رد الجواب عليه عبده به لا بنفسه و ظهر حكمه على كلام ربه نادى الحق عليه ﴿وَ كٰانَ الْإِنْسٰانُ أَكْثَرَ شَيْءٍ جَدَلاً﴾ [الكهف:54] و إن قال الحق و لكن ما كل حق يحمد و لا كل ما ليس بحق يذم فالأدباء يعرفون المواطن التي يحمد فيها الحق فيأتون به فيها و يعرفون المواطن التي يحمد فيها ما ليس بحق فيأتون به فيها مغالطة جزاء وفاقا إلهيا فمن عرف الانقياد الإلهي و الكوني كما قررناه كان من العارفين و لكن فيه أسرار و آداب ينبغي للإنسان إذا تكلم في هذا المقام و أمثاله أن لا يغفل عن دقائقه فإن فيه مكرا خفيا لا يشعر به إلا أهل العناية و من أراد العصمة من ذلك فلينظر إلى ما شرع اللّٰه له و أتى على ألسنة رسله فيمشي معه حيث مشى و يقف عنده حيث وقف من غير مزيد و إن تناقضت الأمور و تصادمت فذلك له لا لك و قل لا أدري هكذا جاء الأمر من عنده و ارجع إليه ﴿وَ قُلْ رَبِّ زِدْنِي عِلْماً﴾ [ طه:114] فهذا قد أنبأ عن المقام الأول

«وصل»

و أما المقام الثاني الذي بيد اسمه المؤمن فإنه نتيجة عن الاسم المؤمن الكياني و هو المظهر له إذا كان بمعنى المصدق لا بمعنى معطي الأمان فإن كان بمعنى معطي الأمان فالاسم الإلهي المؤمن متقدم على المؤمن الكياني فأعطاه الأمان في حال عدمه إنه لا يعدمه إذا أوجده و لا يحول بينه و بين معرفته بوجوده و استناده إليه فأعطاه الأمان في ذلك كله فمن عرف ذلك لم يخف و كان من الآمنين

فتصديق صدق الحق من صدق كونه *** و لولاه لم يصدق و إن كان صادقا



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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