الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 6389 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

فيعلم إن ذلك راجع إلى دخولهم تحت حكم الأسماء الإلهية فمن هناك وقعت الإجارة فهم في الاضطرار و الحقيقة عبيد الذات و هم لها ملك و صارت الأسماء الإلهية تطلبهم لظهور آثارها فيهم فلهم الاختيار في الدخول تحت أي اسم إلهي شاءوا و قد علمت الأسماء الإلهية ذلك فعينت لهم الأسماء الإلهية الأجور يطلب كل اسم إلهي من هذا العبد الذاتي أن يؤثره على غيره من الأسماء الإلهية بخدمته فيقول له ادخل تحت أمري و أنا أعطيك كذا و كذا فلا يزال في خدمة ذلك الاسم حتى يناديه السيد من حيث عبودية الذات فيترك كل اسم إلهي و يقوم لدعوة سيده فإذا فعل ما أمره به حينئذ رجع إلى أي اسم شاء و لهذا يتنفل الإنسان و يتعبد بما شاء حتى يسمع إقامة الصلاة المفروضة فتحرم عليه كل نافلة و يبادر إلى أداء فرض سيده و مالكه فإذا فرغ دخل في أي نافلة شاء فهو في التشبيه في هذه المسألة كعبد لسيده أولاد كثيرة فهو مع سيده بحكم عبودية الاضطرار إذا أمره سيده لم يشتغل بغير أمره و إذا فرغ من أداء ذلك طلب أولاد سيده منه أن يسخروه فلا بد أن يعينوا له ما يرغبه في خدمتهم و كل ولد يحب أن يأخذه لخدمته في وقت فراغه من شغل سيده فيتنافسون في أجره ليستخلصوه إليهم فهو مخير مع أي ولد يخدم في ذلك الوقت فالإنسان هو العبد و السيد هو اللّٰه و الأولاد سائر الأسماء الإلهية فإذا رأى هذا العبد ملهوفا فأغاثه فيعلم أنه تحت تسخير الاسم المغيث فيكون له من المغيث ما عين له في ذلك من الأجر و إذا رأى ضعيفا في نفسه فتلطف به كان تحت تسخير الاسم اللطيف و كذلك ما بقي من الأسماء فتحقق يا ولي كيف تخدم ربك و سيدك و كن على علم صحيح في نفسك و في سيدك تكن من العلماء الراسخين في العلم الحكماء الإلهيين و تفز بالدرجة القصوى و المكانة العليا مع الرسل و الأنبياء و يحوي أيضا هذا المنزل على علم التخلق بالأسماء الإلهية كلها و أعني بالكل ما وصل إلينا العلم بها و علم التمييز و أين يناله العبد و تقدير الزمان الذي بينه و بين الوصول إليه و علم التفاضل الإلهي بين اللّٰه و بين عباده في مثل قوله ﴿أَحْسَنُ الْخٰالِقِينَ﴾ [المؤمنون:14]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!