الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿مٰا خَلَقْنٰاهُمٰا إِلاّٰ بِالْحَقِّ﴾ [الدخان:39] قيل فأين هو قال في عين التمييز فلا أقدر على إنكار التمييز و لا أقدر أثبت سوى عين واحدة ف‌ ﴿لاٰ إِلٰهَ إِلاّٰ هُوَ رَبُّ الْعَرْشِ الْكَرِيمِ﴾ [المؤمنون:116]

(التوحيد الثاني
و العشرون)

من نفس الرحمن هو قوله ﴿اَللّٰهُ لاٰ إِلٰهَ إِلاّٰ هُوَ رَبُّ الْعَرْشِ الْعَظِيمِ﴾ [النمل:26] هذا توحيد الخبء و هو من توحيد الهوية لما كان الخبء النباتي تخرجه الشمس من الأرض بما أودع اللّٰه فيها من الحرارة و مساعدة الماء بما أعطى اللّٰه فيه من الرطوبة فجمع بين الحرارة و منفعل البرودة حتى لا تستقل الشمس بالفعل فظهرت الحياة في الحي العنصري و كان الهدهد دون الطير قد خصه اللّٰه بإدراك المياه كان يرى للماء السلطنة على بقية العناصر تعظيما لنفسه و حماية لمقامه حيث اختص بعلمه ليشهد له بالعلم بأشرف الأشياء حيث كان العرش المستوي عليه الرحمن على الماء فكان يحامي عن مقامه و وجد قوما يعبدون الشمس و هي على النقيض من طبع الماء الذي جعل اللّٰه منه كل شيء حي و علم أنه لو لا حرارة الشمس ما خرج هذا الخبء و أنها مساعدة للماء فأدركته العيرة في المنافر فوشى إلى سليمان عليه السّلام بعابديها و زاد للتغليظ بقوله من دون اللّٰه ينبهه على موضع الغيرة و الشمس و إن أخرجت خبء الأرض بحرارتها فهي تخبأ الكواكب بإشراقها و تظهر المحسوسات الأرضية بشروقها فلها حالة الخبء و الإظهار و بها حد الليل و النهار فزاحمت من ﴿يُخْرِجُ الْخَبْءَ فِي السَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضِ وَ يَعْلَمُ مٰا تُخْفُونَ وَ مٰا تُعْلِنُونَ﴾ [النمل:25] فابتلى اللّٰه الماء فأصبح غورا و ابتلى الشمس فأمست آفلة ففجر العيون فأظهر خبء الماء ﴿وَ فٰارَ التَّنُّورُ﴾ [هود:40]



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