الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 4443 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

من عين واحدة و هو في التجلي الأول لا غيره و هو في التجلي الآخر لا غيره فقل إله و قل عالم و قل أنا و قل أنت و قل هو و الكل في حضرة الضمائر ما برح و ما زال فزيد يقول في حقك هو و عمرو يقول عنك أنت و أنت تقول عنك أنا فإنا عين أنت و عين هو و ما هو أنا عين أنت و لا عين هو فاختلفت النسب و هنا بحور طامية لا قعر لها و لا ساحل و عزة ربي لو عرفتم ما فهت به في هذه الشذور لطربتم طرب الأبد و لخفتم الخوف الذي لا يكون معه أمن لأحد تدكدك الجبل عين ثباته و إفاقة موسى عين صعقته

انظر إلى وجهه في كل حادثة *** من الكيان و لا تعلم به أحدا

أيها التابع المحمدي لا تغفل عما نبهتك عليه و لا تبرح في كل صورة ناظرا إليه فإن المجلى أجلي ثم أخذ بيده البرجيس و جاء به إلى صاحب النظر فعرفه ببعض ما يليق به مما علمه التابع من علم موسى بما يختص من تأثيرات الحركات الفلكية في النشآت العنصرية لا غير فارتحلا من عنده المحمدي على رفرف العناية و صاحب النظر على براق الفكر ففتح لهما السماء السابعة و هي الأولى من هناك على الحقيقة فتلقاه إبراهيم الخليل عليه السّلام و تلقى صاحب النظر كوكب كيوان فأنزله في بيت مظلم قفر موحش و قال له هذا بيت أخيك يعني نفسه فكن به حتى آتيك فإني في خدمة هذا التابع المحمدي من أجل من نزل عليه و هو خليل اللّٰه فجاء إليه فوجده مسندا ظهره إلى البيت المعمور و التابع جالس بين يديه جلوس الابن بين يدي أبيه و هو يقول له نعم الولد البار فسأله التابع عن الثلاثة الأنوار فقال هي حجتي على قومي آتانيها اللّٰه عناية منه بي لم أقلها أشرا كالكن جعلتها حبالة صائد أصيد بها ما شرد من عقول قومي ثم قال له أيها التابع ميزا المراتب و اعرف المذاهب و كن على بينة من ربك في أمرك و لا تهمل حديثك فإنك غير مهمل و لا متروك سدى اجعل قلبك مثل هذا البيت المعمور بحضورك مع الحق في كل حال



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!