الفتوحات المكية

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[أنه ما وسع الحق شيء مما رأيت سوى قلب المؤمن]

و اعلم أنه ما وسع الحق شيء مما رأيت سوى قلب المؤمن و هو أنت فعند ما سمع صاحب النظر هذا الخطاب قال ﴿يٰا حَسْرَتىٰ عَلىٰ مٰا فَرَّطْتُ فِي جَنْبِ اللّٰهِ وَ إِنْ كُنْتُ لَمِنَ السّٰاخِرِينَ﴾ [الزمر:56] و علم ما فاته من الايمان بذلك الرسول و اتباع سنته و يقول يا ليتني لم أتخذ عقلي دليلا و لا سلكت معه إلى الفكر سبيلا و كل واحد من هذين الشخصين يدرك ما تعطيه الروحانيات العلى و ما يسبح به الملأ الأعلى بما عندهما من الطهارة و تخليص النفس من أسر الطبيعة و ارتقم في ذات نفس كل واحد منهما كل ما في العالم فليس يخبر إلا بما شاهده من نفسه في مرآة ذاته فحكاية الحكيم الذي أراد أن يرى هذا المقام للملك فاشتغل صاحب التصوير الحسن بنقش الصور على أبدع نظام و أحسن إتقان و اشتغل الحكيم بجلاء الحائط الذي يقابل موضع الصور و بينهما ستر معلق مسدل فلما فرغ كل واحد من شغله و أحكم صنعته فيما ذهب إليه جاء الملك فوقف على ما صوره صاحب الصور فرأى صورا بديعة يبهر العقول حسن نظمها و بديع نقشها و نظر إلى تلك الأصبغة في حسن تلك الصنعة فرأى أمرا هاله منظره و نظر إلى ما صنع الآخر من صقالة ذلك الوجه فلم ير شيئا فقال له أيها الملك صنعتي ألطف من صنعته و حكمتي أغمض من حكمته ارفع الستر بيني و بينه حتى ترى في الحالة الواحدة صنعتي و صنعته فرفع الستر فانتقش في ذلك الجسم الصقيل جميع ما صوره هذا الآخر بألطف صورة مما هو ذلك في نفسه فتعجب الملك ثم إن الملك رأى صورة نفسه و صورة الصاقل في ذلك الجسم فحار و تعجب و قال كيف يكون هكذا فقال أيها الملك ضربته لك مثلا لنفسك مع صور العالم إذا أنت صقلت مرآة نفسك بالرياضات و المجاهدات حتى تزكو و أزلت عنها صدأ الطبيعة و قابلت بمرآة ذاتك صور العالم انتقش فيها جميع ما في العالم كله و إلى هذا الحد ينتهي صاحب النظر و أتباع الرسل و هذه الحضرة الجامعة لهما و يزيد التابع على صاحب النظر بأمور لم تنتقش في العالم جملة واحدة من حيث ذلك الوجه الخاص الذي لله في كل ممكن محدث مما لا ينحصر و لا ينضبط و لا يتصور يمتاز به هذا التابع عن صاحب النظر و من هذه السماء يكون الاستدراج الذي لا يعلم و المكر الخفي الذي لا يشعر به و الكيد المتين و الحجاب و الثبات في الأمور و التأني فيها و من هنا يعرف معنى قوله



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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