الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 431 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

لأنه ما ظهر إلا ليعطي معناه فلا بد من كمال ألف سنة لهذه الأمة و هي في أول دورة الميزان و مدتها ستة آلاف سنة روحانية محققة و لهذا ظهر فيها من العلوم الإلهية ما لم يظهر في غيرها من الأمم فإن الدورة التي انقضت كانت ترابية فغاية علمهم بالطبائع و الإلهيون فيهم غرباء قليلون جدا يكاد لا يظهر لهم عين ثم إن المتأله منهم ممتزج بالطبيعة و لا بد و المتأله منا صرف خالص لا سبيل لحكم الطبع عليه

(مفتاح) [ألف الذات و ألف العلم في الرحمن]

ثم وجدنا في اللّٰه و في الرحمن ألفين ألف الذات و ألف العلم ألف الذات خفية و ألف العلم ظاهرة لتجلى الصفة على العالم ثم أيضا خفيت في اللّٰه و لم تظهر لرفع الالتباس في الخط بين اللّٰه و اللاه و وجدنا في بسم الذي هو آدم عليه السّلام ألفا واحدة خفيت لظهور الباء و وجدنا في الرحيم الذي هو محمد صلى اللّٰه عليه و سلم ألفا واحدة ظاهرة و هي ألف العلم و نفس سيدنا محمد صلى اللّٰه عليه و سلم الذات فخفيت في آدم عليه السّلام الألف لأنه لم يكن مرسلا إلى أحد فلم يحتج إلى ظهور الصفة و ظهرت في سيدنا محمد صلى اللّٰه عليه و سلم لكونه مرسلا فطلب التأييد فأعطى الألف فظهر بها ثم وجدنا الباء من بسم قد عملت في ميم الرحيم فكان عمل آدم في محمد صلى اللّٰه عليه و سلم و جود التركيب و في اللّٰه عمل سبب داع و في الرحمن عمل بسبب مدعو و لما رأينا أن النهاية أشرف من البداية قلنا من عرف نفسه عرف ربه و الاسم سلم إلى المسمى و لما علمنا إن روح الرحيم عمل في روح بسم لكونه نبيا و آدم بين الماء و الطين و لولاهما ما كان سمي آدم علمنا إن بسم هو الرحيم إذ لا يعمل شيء إلا من نفسه لا من غيره فانعدمت النهاية و البداية و الشرك و التوحيد و ظهر عز الاتحاد و سلطانه فمحمد للجمع و آدم للتفريق

(إيضاح) [أحرف الرحيم و دلالتها الغيبية]

الدليل على إن الألف في قوله ﴿اَلرَّحِيمِ﴾ [الفاتحة:1]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!