الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

﴿رَبِّ السَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضِ وَ مٰا بَيْنَهُمَا الرَّحْمٰنِ﴾ [النبإ:37] وجود الألف المرادة هذا على من أعربه مبتدأ و لا يصح من طريق التركيب و الصحيح أن يعرب بدلا من الرب فتبقى الألف هنا عبارة عن الروح و الحق قائم بالجميع و الميم السموات و النون الأرض و إذا ظهرت الألف بين الميم و النون فإن الاتصال بالميم لا بالنون فلا تأخذ النون صفة أبدا من غير واسطة لقطعها و دل اتصالها بالميم على الأخذ بلا واسطة و العدم الذي صح به القطع فيه يفنى النون و يبقى الميم محجوبا عن سر قدمه بالنقطة التي في وسطه التي هي جوف دائرته بالنظر إلى ذاته بعد أن لم تكن فيما ظهر له

(سؤال و جوابه) [اختفاء سر القدم في الميم الملكوتية]

قيل فكيف عرفت سر قدمه و لم يعرفه هو و هو أحق بمعرفة نفسه منك إن نظرت إلى ظاهرك أو هل العالم بسر القدم فيه هو المعنى الموجود فيك المتكلم فيه و هو ميم الروح فقد وقف على سر قدمه الجواب عن ذلك أن الذي علم منا سر القدم هو الذي حجبناه هناك فمن الوجه الذي أثبتنا له العلم غير الوجه الذي أثبتنا له منه عدم العلم و نقول إنما حصل له ذلك علما لا عينا و هذا موجود فليس من شرط من علم شيئا أن يراه و الرؤية للمعلوم أتم من العلم به من وجه و أوضح في المعرفة به فكل عين علم و ليس كل علم عينا إذ ليس من شرط من علم إن ثم مكة رآها و إذا رآها قطعنا أنه يعلمها و لا أريد الاسم فللعين درجة على العلم معلومة كما قيل

و لكن للعيان لطيف معنى *** لذا سأل المعاينة الكليم

بل أقول إن حقيقة سر القدم الذي هو حق اليقين لأنه لا يعاين فلم يشاهده لرجوعه لذات موجدة و لو علم ذات موجدة لكان نقصا في حقه فغاية كماله في معرفة نفسه بوجودها بعد أن لم تكن عينا هذا فصل عجيب إن تدبرته وقفت على عجائب فافهم

(تكملة)



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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