الفتوحات المكية

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﴿يَمْشُونَ عَلَى الْأَرْضِ هَوْناً وَ إِذٰا خٰاطَبَهُمُ الْجٰاهِلُونَ قٰالُوا سَلاٰماً﴾ [الفرقان:63] دأبهم الحياء إذا سمعوا أحدا يرفع صوته في كلامه ترعد فرائصهم و يتعجبون و ذلك أنهم لغلبة الحال عليهم يتخيلون أن التجلي الذي أورث عندهم الخشوع و الحياء يراه كل أحد و رأوا أن اللّٰه قد أمر عباده أن يغضوا أصواتهم عند رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم فقال ﴿يٰا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لاٰ تَرْفَعُوا أَصْوٰاتَكُمْ فَوْقَ صَوْتِ النَّبِيِّ وَ لاٰ تَجْهَرُوا لَهُ بِالْقَوْلِ كَجَهْرِ بَعْضِكُمْ لِبَعْضٍ أَنْ تَحْبَطَ أَعْمٰالُكُمْ وَ أَنْتُمْ لاٰ تَشْعُرُونَ﴾ [الحجرات:2] و إذا كنا نهينا و تحبط أعمالنا برفع أصواتنا على صوت رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم إذا تكلم و هو المبلغ عن اللّٰه فغض أصواتنا عند ما نسمع تلاوة القرآن آكد و اللّٰه يقول ﴿وَ إِذٰا قُرِئَ الْقُرْآنُ فَاسْتَمِعُوا لَهُ وَ أَنْصِتُوا لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُونَ﴾ [الأعراف:204] و هذا هو مقام رجال الغيب و حالهم الذي ذكرناه فيمتاز الحديث النبوي من القرآن بهذا القدر و يمتاز كلامنا من الحديث النبوي بهذا القدر و أما أهل الورع إذا اتفقت بينهم مناظرة في مسألة دينية فيذكر أحد الخصمين حديثا عن رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم خفض الخصم صوته عند سرد الحديث هذا هو الأدب عندهم إذا كانوا أهل حضور مع اللّٰه و طلبوا العلم لوجه اللّٰه فأما علماء زماننا اليوم فما عندهم خير و لا حياء لا من اللّٰه و لا من رسول اللّٰه إذا سمعوا الآية أو الحديث النبوي من الخصم لم يحسنوا الإصغاء إليه و لا أنصتوا و داخلوا الخصم في تلاوته أو حديثه و ذلك لجهلهم و قلة ورعهم عصمنا اللّٰه من أفعالهم و اعلم أن رجال الغيب في اصطلاح أهل اللّٰه يطلقونه و يريدون به هؤلاء الذين ذكرناهم و هي هذه الطبقة و قد يطلقونه و يريدون به من يحتجب عن الأبصار من الإنس و قد يطلقونه أيضا و يريدون به رجالا من الجن من صالحي مؤمنيهم و قد يطلقونه على القوم الذين لا يأخذون شيئا من العلوم و الرزق المحسوس من الحس و لكن يأخذونه من الغيب



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