الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

و المساكين المسكين من السكون و هو ضد الحركة و الموت سكون فإذا تحرك الميت فبتحريك غيره إياه لا بنفسه فالمسكين من يدبره غيره فلهذا فرض اللّٰه له أن يعطي الزكاة و لا يقال فيه إنه آخذ لها و هو لا يتصف بالحاجة و لا بعدم الحاجة و لهذا قلنا في الفقير إنه ما فوقه من هو أشد حاجة منه فإن المسكين هو عين المسلم المفوض أمره إلى اللّٰه عن غير اختيار منه بل الكشف أعطاه ذلك و لهذا ألحقناه بالميت فالمسكين كالأرض التي جعلها اللّٰه لنا ذلولا فمن ذل ذلة ذاتية تحت عز كل عزيز كان من كان فذلك المسكين لتحققه ﴿فَإِنَّ الْعِزَّةَ لِلّٰهِ﴾ [النساء:139] و أن عزته هي الظاهرة في كل عزيز و هذه معرفة نبوية

[فهم العرب و مرتبة العارفين]

يقول تعالى ﴿أَمّٰا مَنِ اسْتَغْنىٰ فَأَنْتَ لَهُ تَصَدّٰى﴾ فعند المحققين ضمير له لله و إن كانت الآية جاءت عتبا و لكن في حق فهم العرب و نحن مع شهود رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم و ذوقه و مرتبته فإن العارفين مناولهم هذا المقام حسنة من حسنات رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم و لا تبالي بذاك العزيز فنقول إنه ممن أشقاه اللّٰه بعزه فإن هذا المسكين ما ذل إلا للصفة و هذه الصفة لا تكون إلا لله عنده حقيقة لم تدنسها الاستعارة قط فهذا المسكين لم ير بعينه إلا اللّٰه إذ كان لا يرى العزة إلا عزته تعالى لا بعينه و لا بقلبه و نظر إلى ذلة كل ما سواه تعالى بالعين التي ينبغي أن ينظر إليهم بها فتخيل المخلوق الموصوف عند نفسه بالعزة أنه ذلك هذا المسكين لعزه و إنما كان ذلك للعز خاصة و العز ليس إلا لله فوفى المقام حقه فمثل هذا هو المسكين الذي يتعين له إعطاء الصدقة

[العامل هو المرشد إلى معرفة المعاني]



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