الفتوحات المكية

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قال اللّٰه تعالى ﴿أَ لَمْ تَرَ أَنَّ اللّٰهَ يُسَبِّحُ لَهُ مَنْ فِي السَّمٰاوٰاتِ وَ الْأَرْضِ وَ الطَّيْرُ صَافّٰاتٍ كُلٌّ﴾ [النور:41] أي كل هؤلاء ﴿قَدْ عَلِمَ صَلاٰتَهُ﴾ [النور:41] الضمير يعود على اللّٰه من قوله صلاته أي صلاة اللّٰه عليه بنفس وجوده و رحمته به في ذلك و قوله ﴿وَ تَسْبِيحَهُ﴾ [النور:41] الضمير يعود في تسبيحه على كل أي ما يسبح ربه به و هو صلاته له فوصف الحق نفسه بالصلاة و ما وصف نفسه بالتسبيح فعم بهذه الآية العالم الأعلى و الأسفل و ما بينهما

(وصل) [من أسرار المعرفة بالله و بمراتب ما سواه]

[نصب الأسباب و توقف بعضها على بعض]

من غيرة اللّٰه أن تكون لمخلوق على مخلوق منة لتكون المنة لله ما خلق مخلوقا إلا و جعل لمخلوق عليه يدا بوجه ما فإن أراد الفخر مخلوق على مخلوق بما كان منه إليه نكس رأسه ما كان من مخلوق آخر إليه فالعارفون مثل الأنبياء و الرسل و الكمل من العلماء بالله لا يخطر لهم ذلك لمعرفتهم بحقائق الأمور و ما ربط اللّٰه به العالم و ما يستحقه جلاله مما ينبغي أن يفرد به و لا يشارك فيه فنصب الأسباب و أوقف الأمور بعضها على بعض

[اعتراف النبي بيد الأنصار عليه]

و «قد قال النبي صلى اللّٰه عليه و سلم للأنصار عند» «ما ذكر أن اللّٰه قد هداهم به قال لو شئتم أن تقولوا لقلتم وجدناك طريدا فأويناك و ضعيفا فنصرناك» الحديث فذكر ما كان منهم في حقه و كان اللّٰه قادرا على نصره من غير سبب و لكن فعل ما تقتضيه الحكمة لما جبل عليه من خلقه اللّٰه على صورته فقال لرسوله صلى اللّٰه عليه و سلم ﴿وَ صَلِّ عَلَيْهِمْ إِنَّ صَلاٰتَكَ سَكَنٌ لَهُمْ﴾ [التوبة:103]

[اللّٰه هو الممتن على عباده بجميع ما هم فيه]

فهذا فخر و يد و منة يتعرض فيها علة و مرض لكن عصم اللّٰه نبيه من ذلك فجعل سبحانه في مقابلة هذه العلة دواء كما هي أيضا دواء لما هو لها دواء فقال تعالى



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