الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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ثم حبب إليه رزق ربه الذي هو ﴿خَيْرٌ وَ أَبْقىٰ﴾ [ طه:73] و هو الحال الذي هو عليه في ذلك الوقت هو رزق ربه الذي رزقه فإنه تعالى لا يتهم في إعطائه الأصلح لعبده فما أعطاه إلا ما هو خير في حقه و أسعد عند اللّٰه و إن قل فإنه ربما لو أعطاه ما يتمناه لعبد طغى و حال بينه و بين سعادته فإن الدنيا دار فتنة و إذا كان لأحد عندك دين و قضيته فأحسن القضاء و زده في الوزن و أرجح تكن بهذا الفعل من خير عباد اللّٰه بأخبار رسول اللّٰه ﷺ فهو من السنة و هو الكرم الخفي اللاحق بصدقة السر فإن المعطي إياه لا يشعر بأنه صدقة و هو عند اللّٰه صدقة سر في علانية و يورث ذلك محبة و ودا في نفس الذي أعطيته و تخفي نعمتك عليه في ذلك ففي حسن القضاء فوائد جمة و عليك يا أخي بالذب و الدفع عن أخيك المؤمن عن عرضه و نفسه و ماله و عن عشيرتك بما لا تأثم به عند اللّٰه فلا تبرح من يدك ميزان مراعاة حق اللّٰه في جميع تصرفاتك و لا تتبع هواك في شيء يسخط اللّٰه فإنك لا تجد صاحبا إلا اللّٰه فلا تفرط في حقه و حقه أحق الحقوق و أوجبها علينا كما ثبت حق اللّٰه أحق أن يقضى و إن عزمت على نكاح فاجهد في نكاح القرشيات و إن قدرت على نكاح من هي من أهل البيت فأعظم و أعظم فإنه قد ثبت أنه خير نساء ركبن الإبل نساء قريش و عاشرهن بالمعروف و اتق اللّٰه فيهن و أحق الشروط ما استحللت به فروجهن و أحسن إليهن في كل شيء و إياك أن تعذب ذا روح إذا كان في يدك حتى الأضحية إذا ذبحتها فحد الشفرة و أسرع و أرح ذبيحتك و ادفع الألم عن كل من يتألم جهد استطاعتك كان ما كان الألم الحسي من كل حيوان و إنسان و من النفسي ما تعلم أنه يرضي اللّٰه و اعلم أنه مما يرضي اللّٰه ما أباحه لك أن تفعله و إذا رأيت أنصاريا من بنى النجار فقدمه على غيره من الأنصار مع حبك جميعهم و عليك بأحسن الحديث و هو كتاب اللّٰه فلا تزل تاليا إياه بتدبر و تفكر عسى اللّٰه أن يرزقك الفهم عنه فيما تتلوه و علم القرآن تكن نائب الرحمن فإن الرحمن ﴿عَلَّمَ الْقُرْآنَ خَلَقَ الْإِنْسٰانَ عَلَّمَهُ الْبَيٰانَ﴾



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