الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و عليك بكثرة الدعاء في حال السجود فإنك في أقرب قربة إلى اللّٰه لما «ثبت من قوله ﷺ أقرب ما يكون العبد من ربه و هو ساجد» فأكثروا الدعاء و لا قرب أقرب من قرب السجود و لا دعاء إلا في القرب من اللّٰه فإذا دعوت في السجود فادع في دوام الحال الذي أوجب لك القرب المطلوب من اللّٰه فإنك تعلم أنه قريب من خلقه و هو معهم أين ما كانوا : و المطلوب أن يكون العبد قريبا من اللّٰه و أن يكون مع اللّٰه في أي شأن يكون اللّٰه فيه فإن الشئون لله كالأحوال للخلق بل هي عين أحوال الخلق التي هم فيها و عليك بصلة أهل ود أبيك بعد موته فإن ذلك من أبر البر «ورد في الحديث أن من أبر البر ان يصل الرجل أهل ود أبيه و إن ذلك من أحب الأعمال إلى اللّٰه» و هو الإحسان إليهم و التودد بالسلام و الخدمة و بما تصل إليه يدك من الراحات و السعي في قضاء حوائجهم و عليك بالتلطف بالأهل و القرابة و لا تعامل أحدا من خلق اللّٰه إلا بأحب المعاملة إليه ما لم تسخط اللّٰه فإن أرضاه ما يسخط اللّٰه فارض اللّٰه و ابدأ بالسلام على من عرفت و من لم تعرف فإن عرفت من الذي تلقاه أنه يسلم عليك فاتركه يبدأ بالسلام ثم ترد عليه فيحصل لك أجر الوجوب فإن رد السلام واجب و الابتداء به مندوب إليه و أحب ما يتقرب به إلى اللّٰه ما افترضه على خلقه و إذا علمت من شخص أنه يكره سلامك عليه و ربما تؤديه تلك الكراهة إلى أنه لو سلمت عليه لم يرد عليك فلا تسلم عليه ابتداء إيثارا له على نفسك و شفقة عليه فإنك تحول بينه و بين وقوعه في المعصية إذا لم يرد عليك السلام فإنه يترك أمر اللّٰه الواجب عليه و من الايمان الشفقة على خلق اللّٰه فبهذه النية اترك السلام عليه و إن علمت من دينه أنه يرد السلام عليك فسلم عليه و إن كره و اجهر بالسلام عليه و ابدأ به فإنك تدخل عليه ثوابا برد السلام و تسقط من كراهته فيك بسلامك عليه بقدر إيمانه و نفسه الصالحة إن كان ممن جبل على خلق حسن و عليك بالنظر إلى من هو دونك في الدنيا و لا تنظر إلى أهل الثروة و الاتساع خوفا من الفتنة فإن الدنيا حلوة خضرة محبوبة لكل نفس فإن النعيم محبوب للنفوس طبعا و لو لا النعيم الذي يجده الزاهد في زهده ما زهد و الطائع في طاعته ما أطاع فإن أخوف ما خافه رسول اللّٰه ﷺ علينا ما يخرج اللّٰه لنا من زهرة الدنيا قال اللّٰه تعالى لنبيه ﴿وَ لاٰ تَمُدَّنَّ عَيْنَيْكَ إِلىٰ مٰا مَتَّعْنٰا بِهِ أَزْوٰاجاً مِنْهُمْ زَهْرَةَ الْحَيٰاةِ الدُّنْيٰا لِنَفْتِنَهُمْ فِيهِ﴾ [ طه:131]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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