الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

﴿لَقَدْ جٰاءَكُمْ رَسُولٌ مِنْ أَنْفُسِكُمْ عَزِيزٌ عَلَيْهِ مٰا عَنِتُّمْ حَرِيصٌ عَلَيْكُمْ بِالْمُؤْمِنِينَ رَؤُفٌ رَحِيمٌ﴾ فسماه عزيزا رءوفا رحيما فنسميه بتسمية اللّٰه إياه و نعتقد أنه صلى اللّٰه عليه و سلم في نفسه مع ربه عبد ذليل خاشع أواه منيب فإطلاق الألفاظ التي تطلق على الحق من الوجه الصحيح الذي يليق بالجناب الإلهي لا ينبغي أن تطلق على أحد من خلق اللّٰه إلا حيث أطلقها الحق لا غير و إن أباح ذلك فالورع ما هو مع المباح و لا سيما في هذه المسألة خاصة فلا يطلقها مع كون ذلك قد أبيح له فإذا أطلقها على من أطلقها عليه الحق أو الرسول صلى اللّٰه عليه و سلم فيكون هذا المطلق تاليا أو مترجما ناقلا عن رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم في ذلك الإطلاق

[ما اختص به الأنبياء و الرسل من الإطلاق]

ثم من الورع عند هؤلاء الرجال أن ينزلوا إلى ما اختصت به الأنبياء و الرسل من الإطلاق فيتورعوا أن يطلقوا عليهم أو على أحد ممن ليس بنبي و لا رسول اللفظ الذي اختصوا به فيطلقون على الرسل الذين ليسوا برسل اللّٰه لفظ الورثة و المترجمين فيقولون وصل من السلطان الفلاني إلى السلطان الفلاني ترجمان يقول كذا و كذا فلم يطلقوا على المرسل و لا على المرسل إليه اسم الملك ورعا و أدبا مع اللّٰه و أطلقوا عليه اسم السلطان فإن الملك من أسماء اللّٰه فاجتنبوا هذا اللفظ أدبا و حرمة و ورعا و قالوا السلطان إذ كان هذا اللفظ لم يرد في أسماء اللّٰه و أطلقوا على الرسول الذي جاء من عنده اسم الترجمان و لم يطلقوا عليه اسم الرسول لأنه قد أطلق على رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم فجعلوه من خصائص النبوة و الرسالة الإلهية أدبا مع رسل اللّٰه عليهم السلام و إن كان هذا اللفظ قد أبيح لهم و لم ينهوا عنه و لكن لم يوجب عليهم فكان لزوم الأدب أولى مع من عرفنا اللّٰه أنه أعظم منا منزلة عنده و هذا لا يعرفه إلا الأدباء الورعون



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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