الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

أشد على كتيبة كل عقل *** تنازعني على الوحي الصريح

لي الورع الذي يسمو اعتلاء *** على الأحوال بالنبإ الصحيح

و ساعدني عليه رجال صدق *** من الورعين من أهل الفتوح

يوالون الوجوب و كل ندب *** و يستثنون سلطنة المبيح

[الورع و اجتناب الشبهات]

الكلام على الورع و أهله و تركه يرد في داخل الكتاب في ذكر المقامات و الأحوال منه إن شاء اللّٰه تعالى و الذي يتعلق بهذا الباب الكلام على معرفة طائفة من أقطابه و عموم مقامه فاعلم إن أبا عبد اللّٰه الحارث بن أسد المحاسبي كان من عامة هذا المقام و أبا يزيد البسطامي و شيخنا أبا مدين في زماننا كانا من خاصته فأعلى أقطاب الورعين اجتناب الاشتراك في إطلاق اللفظ إذ كان الورع اجتناب المحرمات و كل ما فيه شبهة من جانب المحرم فيجتنب لذلك الشبه و هو المعبر عنه بالشبهات أي الشيء الذي له شبه بما جاء النص الصريح بتحريمه من كتاب أو سنة أو إجماع بالحال الذي يوجب له هذا الاسم مثل أكل لحم الخنزير لمن ليس له حال الاضطرار فهو عليه حرام فلهذا قلنا بالحال الذي يوجب له هذا الاسم كما أن المضطر ليس بمخاطب بالتحريم فأكل لحم الخنزير في حق من حاله الاضطرار هو له حلال بلا خلاف

[التحريم الذي لا يحل أبدا]

و لما كان التحريم معناه المنع من الالتباس به و رأوا أن لذلك أحوالا و أنه ما ثم في الوضع شيء محرم لعينه لهذا قيده الشارع بالأحوال و قد انسحب عليه التحريم للحال فما هو محرم لعينه أولى بالاجتناب فلا بد من اجتنابه باطنا علما و قد يحل هذا المحرم لعينه في ظاهر الحال ما يلزمه و هذا هو التحريم الذي لا يحل أبدا من حيث معناه و لا يصح أن تجيء آية شرعية تحله و هو الاتصاف بأوصاف الحق تعالى التي بها يكون إلها فواجب شرعا و عقلا اجتناب هذه الأسماء الإلهية معنى و إن أطلقت لفظا فينبغي أن لا تطلق لفظا على أحد إلا تلاوة فيكون الذي يطلقها تاليا حاكيا كما قال تعالى



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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