الفتوحات المكية

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[سر الطالع و الآفل في الفرائض و النوافل]

و من ذلك سر الطالع و الآفل في الفرائض و النوافل من الباب 87 إذا طلع منك و أفل فيك فهذا القدر من العلم به يكفيك فهو الظاهر بطلوعه و الباطن بأفوله فقف إن أردت السعادة و العلم عند قيله إنما لم يحب الخليل الآفل لأنه رآه يطلب السافل و همته في العلو لطلب الدنو فإنه بذاته يسفل و بحقيقته يافل و لما كان أفوله من خارج افتقر الخليل إلى معارج حتى لا يفقد النجم فلا يحال بينه و بين العلم و المعارج رحلة و قد علم إن الأمر ما فيه نقله فإن نسبة الأينيات إليه على السواء في الاستواء و في غير الاستواء جعل اللّٰه في النوافل عينك كونه و جعل في الفرائض كونك عينه فبك يبصرك في الفرض و به تبصر في النفل فالأمر ﴿ذُرِّيَّةً بَعْضُهٰا مِنْ بَعْضٍ﴾ [آل عمران:34]

ما هو عنك بل أنت عنه *** فأنت منه ما أنت منه

[سر اجتناب الشبهة في كل وجهه]

و من ذلك سر اجتناب الشبهة في كل وجهه من الباب 88 حقيقة الشبهة أن يكون لها إلى كل وجه وجهة و الشيء لا يزول عن حقيقته و لا يعدل عن طريقته لأنه لو زال عن حقيقته لزال العلم و طمس عين الفهم و بطل الحكم و زالت الثقة بالمقة المتشابه محكم لمن علم فحكم من أشبهك فقد أشبهته و من باهتك فقد بهته ﴿لِكُلٍّ وِجْهَةٌ هُوَ مُوَلِّيهٰا﴾ [البقرة:148] فما ثم شبهة أنت و غيرك متواليها العالم شبهة بالتخلي و لهذا أشبهته في التجلي أ لا ترى اختلاف الصور عليه عند النظر إليه لا بل هو يختلف على الصور و هو العلي عن الغير الكل عين واحدة فلا اختلاف و ما ثم عدد فيكون الائتلاف فحقيقة الشبه في الشبه

[سر تناول الشهوات في المتشابهات]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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