الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

إذا لم يطلب كمال الأمر فهو الكامل لنفسه و عينه و كونه لأنه واجب الوجود لنفسه لا تعلق له بالعالم لذاته و إنما كان التعلق من حيث أعيان الممكنات لأنها تطلب نسبا تظهر بها عينها و ما ثم موجود تستند إليه هذه النسب إلا واحد و هو اللّٰه الواجب الوجود لنفسه تعالى فافتقرت إليه إضافات النسب و افتقرت الممكنات إلى النسب فافتقرت إليه فهي أشد فقرا من النسب فصح غناه عن العالم لذاته و عينه

[إن الوجود طلب الكمال]

و لذلك تقول في التقسيم العقلي إن الوجود طلب الكمال و المعرفة طلبت الكمال و لم تجد من بيده مطلوبها إلا الحق سبحانه فافتقرت إليه في ذلك فأوجد الحادث الذي هو عين الممكن فكمل الوجود أي كمل أقسام الوجود في العقل و كذلك تعرف إلى العالم فعرفوه بمعرفة حادثة فكملت المعرفة به في التقسيم العقلي و كل معرفة و علم بقدر العالم و العارف إلا أنه في الجملة لم يبق كمال إلا ظهر فيه بإحسان اللّٰه و رحمته بالسائل في ذلك و لما ظهر العالم من البر الرحيم لم يعرف غير الإحسان و الرحمة فهو على صورة الإحسان و الرحمة فهو مفطور على أن لا يكون منه إلا إحسان و رحمة و لكن بقي متعلقها فيرحم و يحسن لنفسه أولا و لا يبالي كان في ذلك إحسان للغير أو لم يكن فإن الأصل على هذا خرج حيث أحب أن يعرف فخلق الخلق فتعرف إليهم فعرفوه و قد علم إن منهم من يتألم و لكن ما راعى إلا العلم به لا من يتألم منهم فالنعيم وجود و العذاب فقد ذلك النعيم لا أنه أمر وجودي فالعالم كله بر رحيم بنفسه لا بد من ذلك فإنه من الجود صدر

ليس في العالم إلا *** من هو البر الرحيم

فإذا ما كنت عبدا *** فنعيمه المقيم

و إذا ما كنت ربا *** فعذابه الأليم

و صراطي بين هذين *** صراط مستقيم

ذاك هدى الأنبياء *** و هدى اللّٰه القويم



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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