الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 9689 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

إنما المحيي الذي يحيي *** مثل نشر الثوب من طي

فإذا ما قيل لي تحيي *** قلت ربي الذي يحيي

و هو مولاي و مستندي *** و مزيل الرشد بالغي

و إذا ما جئت أسئلة *** زادني ليالي

لست في خير و في دعة *** كلما دعيت بالشيء

[أن الحياة للأشياء فيض من حياة الحق عليها]

يدعى صاحبها عبد المحيي و هو الذي يعطي الحياة لكل شيء فما ثم إلا حي لأنه ما ثم إلا من يسبح اللّٰه بحمده و لا يسبحه إلا حي سواء كان ميتا أو غير ميت فإنه حي لأن الحياة للأشياء فيض من حياة الحق عليها فهي حية في حال ثبوتها و لو لا حياتها ما سمعت قوله كن بالكلام الذي يليق بجلاله فكانت و إنما كان محييا لكون حياة الأشياء من فيض اسم الحي كنور الشمس من الشمس المنبسط على الأماكن و لم تغب الأشياء عنه لا في حال ثبوتها و لا في حال وجودها فالحياة لها في الحالتين مستصحبة و لذلك قال إبراهيم ع ﴿لاٰ أُحِبُّ الْآفِلِينَ﴾ [الأنعام:76] فإن الإله لا يكون من الآفلين و الحي من أسمائه تعالى و ليس الموت من أسمائه فهي يحيي و يميت و ليس الموت بإزالة الحياة منه في نفس الأمر و عند أهل الكشف و لكن الموت عزل الوالي و تولية وال لأنه لا يمكن أن يبقى العالم بلا وال يحفظ عليه مصالحه لئلا يفسد فاستناد الموت إذا كان عبارة عن الانتقال و العزل يستند إلى حقيقة إلهية و ليس إلا فراغ الحق من شيء إلى شيء آخر فما له فيما فرغ منه من حكم في ذلك الوجه المفروغ منه و ليس إلا إيجاد عينه خاصة و ما بقي الشغل و عدم الفراغ إلا في إيجاد ما به بقاؤه في الوجود فإلى هذه الحقيقة الإلهية مستند الموت في العالم إلا ترى إلى الميت يسأل و يجيب إيمانا و كشفا و أنت يا محجوب تحكم عليه في هذه الحال عينا إنه ميت و كذا جاء إن الميت يسأل في قبره و ما أزال عنه اسم الموت السؤال فإن الانتقال موجود فلو لا أنه حي في حال موته ما سئل فليس الموت بضد للحياة إن عقلت

«الميت حضرة الموت»

يميت بالجهل أقواما و إنهم *** بالمال و الجاه عند الخلق أحياء



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!