الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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(وفق مخطوطة قونية)

«إن النبي ﷺ قد أخبر أن اللّٰه يتجلى في صورة و يتحول إلى صورة و أنه يعرف و ينكر» إن كنت مؤمنا لا تشك في هذا و أنه قد بين أن التجلي في الصور بحسب قدر المتجلي له فإذا علمت هذا تعلم أن موسى قد رأى الحق بما هو متجل للأولياء إذ علم أنه يتجلى للأولياء في صور مختلفة لأن موسى ولي اللّٰه و قد علم ذلك و مثل هذا فلا يخفى و إنما سأل التجلي في الصورة التي لا يدركها إلا الأنبياء و من الأنبياء من خصه اللّٰه بمقام لم ينله غيره كالكلام بارتفاع الوسائط لموسى عليه السّلام فطلب موسى عليه السّلام من ربه أن يراه في تلك الصورة التي يطلبها مقامه و أما رؤيته إياه في الصورة التي يراها الأولياء فذلك خبره و ديدنه و ما جعلك تقول مثل هذا على طريق الاعتراض إلا لكونك لست بولي عارف إذ لو كنت من العارفين لشهدته و لم يغب عنك علم ما انفصلنا به في جواب سؤالك فصح قوله إن في الجنة ما لا عين رأت أي في الستر اعتبارا لا تفسيرا إذ لو رأته عين ما كان مستورا و لو رأته لنطقت به و كان مسموعا و لو كان مسموعا لكان محدودا و لو كان محدودا لأخطرته فكان معلوما فهو أمر حجبنا عنه بحجاب لا يعرف فإنه في الستر المعبر عنه بالجنة فإذا كان عينه عين الستر فما حجبنا إلا جعلنا ما رأيناه سترا فتعلقت الهمة بما خلف الستر و هو المستور فأتى علينا منا و ما جعلنا في ذلك إلا التنزيه و لهذا جاءت الأنبياء عليه السّلام مع التنزيه بنعوت التشبيه لتقرب الأمر على الناس و تنبيه الأقربين إلى اللّٰه الذين هم في عين القرب مع الحجاب الذي هو الأمر عليه فيكون في ذلك التنبيه بالتشبيه رفع الأغطية عن البصر فيتصف البصر بأنه حديد كما يتصف بصر المحتضر قال تعالى



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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