الفتوحات المكية

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الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

أنت ما أنت لست أنت سوانا *** فاسكب إن شئت للفراق دموعا

و لما وصلت في جماعة الواصلين من أهل زماني إلى هذا الباب الإلهي وجدته مفتوحا ما عليه حاجب و لا بواب فوقفت عنده إلى أن خلع على خلعة الوراثة النبوية و رأيت خوخة مغلقة فأردت قرعها فقيل لي لا تقرع فإنها لا تفتح فقلت فلأي شيء وضعت قيل لي هذه الخوخة التي اختص بها الأنبياء و الرسل عليه السّلام و لما كمل الدين أغلقت و من هذا الباب كانت تخلع على الأنبياء خلع الشرائع ثم إني التفت في الباب فرأيته جسما شفافا يكشف ما وراءه فرأيت ذلك الكشف عين الفهم الذي للورثة في الشرائع و ما يؤدي إليه اجتهاد المجتهدين في الأحكام فلازمت تلك الخوخة و النظر فيما وراء ذلك الباب فجليت لي من خلفه صور المعلومات على ما هي عليه فذلك عين الفتح الذي يجده العلماء في بواطنهم و لا يعلمون من أين حصل لهم إلا إن كوشفوا على ما كشف لنا فالنبوة العامة لا تشريع معها النبوة الخاصة التي بابها تلك الخوخة هي نبوة الشرائع فبابها مغلق و العلم بما فيها محقق فلا رسول و لا نبي فشكرت اللّٰه على ما منح من المتن في السر و العلن فلما اطلعت من الباب الأول الذي يصل إليه السالكون الذي منه تخرج الخلع إليهم رأيت منه شكر الشاكرين كالصور التي تجلت لنا خلف الخوخة و الظاهر من الشكر كالخوخة فلم أر شاكرا إلا لواحد من خلف الكلمات الظاهرة فلم أجد في تلك الحالة مساعد إلى على الشكر فقلت أخاطب ربي تعالى عز و جل

إذا رمت شكرا لم أجد لك شاكرا *** و إن أنا لم أشكر أكون كفورا

سترت عقول الخلق بالسبب الذي *** وضعت فلم آنس عليك غيورا

و قد بلغت عنك التراجم غيرة *** أمرت بها عبدا بتلك خبيرا



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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