الفتوحات المكية

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(وفق مخطوطة قونية)

بما بين له فعلم كيف يبين لغيره فنقول إن الجسم لما ملأ الخلأ كان أول شكل قبله الاستدارة فسمى تلك الاستدارة فلكا و في تلك الدائرة ظهرت صور العالم كله أدناه و أعلاه و لطيفه و كثيفه و ما يتحيز منه و ما لا يتحيز فالذي ملأ الخلأ غير متحيز و لا في مكان و لا يقبل المكان و لو لا اتصاف الحق بالإحاطة ما توهم العقل انحصار هذا الجسم الكل في الخلأ و لا توهم الخلأ إلا من شهود الجسم المحسوس كما لم يتوهم انحصار الممكنات و إن كانت لا تتناهى في نفس الأمر و ما وجد منها هو متناه و يدخل في ذلك العقل الأول و كل ما لا يتحيز و لا يقبل المكان و كان ينبغي أن يقال فيما لا يتحيز أن ذلك غير متناه لأن التناهي لا يعقل إلا في المكان و الزمان الموجود و قد وجد ما لا يتحيز فكيف يعقل فيه التناهي و كذلك ما دخل في الوجود من المراتب و إن كانت عدما فإنها متوهمة الوجود فإن المراتب نسب عدمية و هي المكانة تنزل كل شيء موجود أو معدوم بالحكم في رتبته سواء كان واجب الوجود لذاته أو واجب الوجود لغيره أو محال الوجود فللعدم الخالص مرتبة و للوجود المحض مرتبة و للممكن المحض مرتبة كل مرتبة متميزة عن الأخرى فلا بد من الحصر المتوهم و المعقول و المعلومات كلها في علم اللّٰه على ما هي عليه فهو يعلم نفسه و يعلم غيره و وجوده لا يتصف بالتناهي و ما لم يدخل في الوجود فلا يتصف بالتناهي و الأجناس متناهية و هي معلومة بعلمه و العلم محيط بما يتناهى و ما لا يتناهى مع حصر العلم له و هنا حارت العقول من حيث أفكارها ثم إن الحق إن حققت الأمر قد أدخل نفسه في الوصف الذي وصف به من الظرفية فوصف نفسه بأنه في العماء و على العرش و في السماء و في الأرض و وصف نفسه بالقبل و بالمعية و بكل شيء و جعل نفسه عين كل شيء بقوله ﴿كُلُّ شَيْءٍ هٰالِكٌ إِلاّٰ وَجْهَهُ﴾ [القصص:88] ثم قال ﴿لَهُ الْحُكْمُ﴾ [الأنعام:62]



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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