الفتوحات المكية

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و الرب المصلح فإن اللّٰه يصلح بين عباده يوم القيامة «هكذا جاء في الخبر النبوي في الرجلين يكون لأحدهما حق على الآخر فيقفان بين يدي اللّٰه تعالى فيقول رب خذ لي بمظلمتي من هذا فيقول له ارفع رأسك فيرى خيرا كثيرا فيقول المظلوم لمن هذا يا رب فيقول لمن أعطاني الثمن فيقول يا رب و من يقدر على ثمن هذا فيقول له أنت بعفوك عن أخيك فيقول قد عفوت عنه فيأخذ بيده فيدخلان الجنة فقال رسول اللّٰه ﷺ عند إيراده هذا الخبر» ﴿فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَ أَصْلِحُوا ذٰاتَ بَيْنِكُمْ﴾ [الأنفال:1] فإن اللّٰه يصلح بين عباده يوم القيامة الكريم إذا كان من شأنه أن يصلح بين عباده بمثل هذا الصلح حتى يسقط المظلوم حقه و يعفو عن أخيه فالله أولى بهذه الصفة من العبد في ترك المؤاخذة بحقوقه من عباده فيعاقب من شاء بظلم الغير لا بحقه المختص به و لهذا الأخذ بالشرك من ظلم الغير فإن اللّٰه ما ينتصر لنفسه و إنما ينتصر لغيره و الذي شاء سبحانه ينتصر له فإن الشركاء يتبرءون من أتباعهم يوم القيامة و الرب أيضا المغذي و المربي فهو يربي عباده و المربي من شأنه إصلاح حال من يربيه فمن التربية ما يقع بها الألم كمن يضرب ولده ليؤدبه و ذلك من جملة تربيته و طلب المصلحة في حقه لينفعه ذلك في موطنه كذلك حدود اللّٰه تربية لعباده حيث أقامها اللّٰه عليهم فهو يربيهم بها لسعادة لهم في ذلك من حيث لا يشعرون كما لا يشعر الصغير بضرب من يربيه إياه و الرب أيضا السيد و السيد أشفق على عبده من العبد على نفسه فإنه أعلم بمصالحه و لن يسعى سيد في إتلاف عبده لأنه لا تصح له سيادة إلا بوجود العبد فإنها صفة إضافية فعلى قدر ما يزول من المضاف يزول من حكم المضاف إليه كالسلطان إذا لم يكن شغله دائما في أمور رعيته و إلا فما له من السلطنة إلا الاسم و هو معزول في نفس الأمر فإن المرتبة لا تقبله سلطانا إلا بشروطها فعلى قدر ما يشتغل عن رعيته بنفسه في لهوه و طربه فهو إنسان من جملة الناس لا حظ له في السلطنة و ينقصه في الآخرة من أجر السلطنة و عزها و شموخها على قد ما فرط فيه من حقها في الدنيا بلهوه و لعبة و صيده و تغافله عن أمور رعيته و إذا سمع السلطان باستغاثة بعض رعيته عليه فلم يلتفت لذلك المستغيث و لا قضى فيه بما تعطيه مسألته إما له و إما عليه فقد شهد على نفسه بهذا الفعل أنه معزول و أنه ليس بسلطان و لا فرق بينه و بين العامة فما يقع مثل هذا إلا من سلطان جاهل لا معرفة له بقدر ما ولاة اللّٰه عليه و لا غرو أن هذا الفعل يوجب أن يحور عليه وباله يوم القيامة و تقوم عليه الحجة عند اللّٰه لرعيته فيبقى موبقا بعمله و لا ينفعه عند ذلك لهوه و لا ماله و لا بنوه و لا كل ما شغله عما تطلبه السلطنة بذاتها و أما الرب الذي هو المالك فلشدة ما يعطيه هذا الاسم من النظر فيما تستحقه المرتبة فيوفيها حقها فقد بان لك في هذا المساق معنى اختصاص هذا الاسم الرب الذي إليه المساق عند التفاف الساق بالساق فبه انتظم الأمران و ثبت الانتقالان و من علم ثبوت الوجود و من هو مالكه و سيده و مصلحه و الثابت له حكمه فيه علم إن الرب مالكه و من علم منزلة عبوديته علم منزلة سيادة سيده فخافه و رجاه و صدقه في أمنه إذا أمنه لعلمه بأنه السيد الوفي الصادق الغني و مهما تهدم شيء من بيت الوجود رمه هذا السيد بيد عبده لأنه آلته في ذلك و المستخدم فعلى يده يكون صلاح ما تهدم منه و يأمره سيده في ذلك إما بمشافهة أو بتبليغ مبلغ يبلغ إليه من السيد بإصلاحه أو صورة حال تعطيه إصلاح ذلك من غير توقف على الأمر الآتي من عند السيد كالرهبانية الحسنة التي ابتدعها من ابتدعها فهو مأجور فيها موافقة بصورة الحال لما في نفس السيد و إن لم يأمر بها في النواميس في أهل الفترات فإن الشرع ما جاء إلا لمصالح الدنيا و الآخرة فالآخرة لا تعرف إلا بأخبار خالقها و أنها في حكم العقل ممكنة و الدنيا و مصالحها معلومة لأنها واقعة مشهودة فللنظر في مصالحها مجال بخلاف الآخرة فلا تتوقف مصالح الدنيا على ما تتوقف عليه مصالح الآخرة و لهذا ما خلت طائفة من ناموس تكون عليه لأن طلب المصالح ذاتي في الحيوان فكيف في الإنسان صاحب الفكر و الرؤية فمن تدبر هذا الوصل رأى عجبا و علم علما يعطيه الرفعة في الدنيا و الآخرة و ينضم إليه علم الجمع و الفرق الذي في عين الجمع و علم الأحوال و الشئون و علم الزمانين و علم ما يختص بالكون و علم القلوب التي وسعت الحق جل جلاله و علم ما يقع به البقاء لهذا الوجود أعني الموجودات كلها و علم العاقبة و هو وصل شريف



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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