الفتوحات المكية

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«فقال ﷺ الخير عادة و الشر لجاجة» و لما ألح القرين على النفس و لج بالشر الذي هو عين مخالفة أمر اللّٰه و نهيه و ضاقت منافسها من هذا الإلحاح و اللجاج أوحى اللّٰه إليها بل كلمها من الوجه الخاص الذي لا يعرفه الملك بأن تقبل منه ما ألح عليها به من الشر فرأى الحق فيها استيحاشا و خوفا من المكر الإلهي فأشهدها حضرة التبديل و أشهدها مال المكلفين إلى الرحمة و تلا عليها ﴿يُبَدِّلُ اللّٰهُ سَيِّئٰاتِهِمْ حَسَنٰاتٍ﴾ [الفرقان:70] و تلا عليها في المسرفين ﴿لاٰ تَقْنَطُوا مِنْ رَحْمَةِ اللّٰهِ إِنَّ اللّٰهَ يَغْفِرُ الذُّنُوبَ جَمِيعاً﴾ [الزمر:53] فأزال وحشتها و قبلت من القرين الشر الذي جاء به إليها فسر بما وقع منها من القبول لجهله بعموم الرحمة و عموم العفو و المغفرة و إن اللّٰه ما جعل العفو إلا لهذا الصنف الذي يتلقى من الشيطان القرين ما جاء به من الشر و ما علم إن اللّٰه قد جعل النفس في قبولها شر القرين باللجاج و الإلحاح منزلة المكره و المكره غير مؤاخذ فسمى الشر لجاجة بشارة إلهية لا يشعر بها كل أحد و جعل الخير عادة فإن النفس بالذات خيرة لأن أباها الروح القدسي الطاهر فطبعها الخير لا غيره و أمها هذه الصورة المسواة من هذه الأخلاط فأول قبول ظهر فيها قبول السواء و العدل و هو قوله ﴿فَسَوّٰاكَ فَعَدَلَكَ﴾ [الإنفطار:7] و قبول العدل عين الخير و قبلت بالأصالة هذه النشأة مجاورة الأضداد و هي الأخلاط و من عادة الضد المنافرة عن ضده و لم يوجد هنا تنافر فدل على خيرية الأصل ثم قبولها بعد التعديل و التسوية لنفخ الروح القدسي فكان أول قبول قبلته على ما زاد على نشأتها نفخ هذا الروح الخير الطاهر المطهر فلهذا كان الخير لها عادة بالطبع الذي طبعت عليه و لهذا ترجع في المال إلى أصلها فإن الأصل منها ما ذكرناه من قبول الخير فتلحقها الرحمة في المال كما كان وجودها عين الرحمة فختم الأمر بما به بدأ و الخاتمة عين السابقة و مما يؤيد ما ذكرناه أن أول نشأة إنسانية التي كانت أصل النشآت الإنسانية كانت في غاية التقديس و أوج الشرف بكونها مخلوقة على الصورة الإلهية فلم يظهر عنها إلا المناسب فكما كان المناسب لها مع وجود المخالفة التي تعطيها حقائق الأسماء الإلهية المقابلة أن لا يتطرق إليها لمخالفة بعضها بعضا لسان ذم كذلك ما ظهر من المخالفة في هذه النشأة الإنسانية لا يتطرق إليها في المال تسرمد عذاب فإن الأصل يحميها من ذلك و هو الصورة فكانت مجبورة في مخالفتها فلا بد من المخالفة لأنه لا بد من تقابل الأسماء في الذي خلقت على صورته فالنافع ما هو الضار و لا المعطي هو المانع و لا بد من ظهور هذه الحقائق في هذه النشأة حتى يصح كمال الصورة فالطائع يقابل العاصي و المشرك يقابل الموحد و المعطل يقابل المثبت و الموافق يقابل المخالف من إمداد الأسماء الإلهية و هو قوله ﴿كُلاًّ نُمِدُّ هٰؤُلاٰءِ وَ هَؤُلاٰءِ مِنْ عَطٰاءِ رَبِّكَ﴾ [الإسراء:20] يعني الطائع و العاصي و أهل الخير و الشر ﴿وَ مٰا كٰانَ عَطٰاءُ رَبِّكَ مَحْظُوراً﴾ [الإسراء:20] أي ممنوعا لأنه يعطي لذاته و المحال القوابل تقبل باستعدادها و استعدادها أثر الأسماء الإلهية فيها و من الأسماء الإلهية الموافق و المخالف مثل الموافق الرحيم و الغفور و أشباهه و مثل المخالف المعز و المذل فلا بد أن يكون استعداد هذا المحل في حكم اسم من هذه الأسماء فيكون قبوله للحكم الإلهي بحسب ذلك فأما مخالف و إما موافق و من كان هذا حاله كيف يتعلق به ذم ذاتي و الأعراض لا ثبات لها فالخير في الإنسان ذاتي و هو الذي يبقى لها حكمه و الشر عرضي فيزول و لو بعد حين قال تعالى



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