الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 6694 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

﴿وَ مٰا يَنْطِقُ عَنِ الْهَوىٰ﴾ [ النجم:3] هذا القائل فأثبت الأخوة بين المؤمنين و جعل كل واحد من المؤمنين مرآة لأخيه فيراه و يرى فيه نفسه من كونه على أي صورة كان كل مؤمن منهما بهذه المثابة فيكون المؤمن الحق مرآة للمؤمن الخلق فيراه و يعلم أنه يراه كما يعلم صاحب المرآة أن له مرآة ثم ينظر فيها فلا يرى إلا صورته و صورة ما أثرت المرآة فيه و لهذا جعل له عينين ليرى بالعين الواحدة صورته و بالعين الأخرى ما حكمت به المرآة في صورته إذ لم يكن في نفسه على ما حكمت به المرآة عليه في الصورة المحسوسة من الكبر و الصغر و الطول و العرض و الاستقامة و الانتكاس على حسب شكل المرآة و لا يرى هذا الأثر كله هذا الناظر إلا في صورته فيعلم إن له فيه حكما ذاتيا لا يمكن أن يرى نفسه في هذه المرآة إلا بحسب ذلك فإذا كان المؤمن الخلق هو عين المرآة للمؤمن الحق فيراه الحق و هو في نفسه على استعداد خاص فلا يبدو من الحق له إلا على قدر استعداده فلا يرى الحق من نفسه في هذه المرآة الخاصة إلا قدر ذلك فآثرت هذه المرآة في إدراك الرائي القصور على ما رأى بحكم الاستعداد فأشبهه من هذا الوجه فعبر عن هذا المقام بالإخوة إذ لو لا المناسبة بين الأمرين لم يكن كل واحد من الأمرين مرآة لأخيه و ما نصب اللّٰه هذا المثال و خلق لنا هذه المرائي إلا ليعطينا النظر فيها إصلاح ما وقع في صورتنا من خلل و ما يتعلق بها من أذى لتزيله على بصيرة فهي تجل لإزالة العيوب فيدلك هذا أن الرائي في المرآة يحصل له علم لم يكن يراه قبل ذلك ففي المؤمن المخلوق يقرب ذلك و يصح و في المؤمن الحق يعسر مثل هذا فهو قوله تعالى في المؤمن الحق ﴿وَ لَنَبْلُوَنَّكُمْ حَتّٰى نَعْلَمَ﴾ [محمد:31]



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!