الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿وَ مٰا مِنّٰا إِلاّٰ لَهُ مَقٰامٌ مَعْلُومٌ﴾ [الصافات:164] فلو أراد الحق صعوده فوق ذلك المقام لكان محمولا مثل ما حمل الرسول ﷺ و لما وصل المعراج الرفرفي بالرسول ﷺ إلى مقامه الذي لا يتعداه الرفرف زج به في النور زجة غمرة النور من جميع نواحيه و أخذه الحال فصار يتمايل فيه تمايل السراج إذا هب عليه نسيم رقيق يميله و لا يطفئه و لم ير معه أحدا يأنس به و لا يركن إليه و قد أعطته المعرفة أنه لا يصح الأنس إلا بالمناسب و لا مناسبة بين اللّٰه و عبده و إذا أضيفت المؤانسة فإنما ذلك على وجه خاص يرجع إلى الكون فأعطته ﷺ هذه المعرفة الوحشة لانفراده بنفسه و هذا مما يدلك أن الإسراء كان بجسمه ﷺ لأن الأرواح لا تتصف بالوحشة و لا الاستيحاش فلما علم اللّٰه منه ذلك و كيف لا يعلمه و هو الذي خلقه في نفسه و طلب عليه السّلام الدنو بقوة المقام الذي هو فيه فنودي بصوت يشبه صوت أبي بكر تأنيسا له به إذ كان أنيسه في المعهود فحن لذلك و أنس به و تعجب من ذلك اللسان في ذلك الموطن و كيف جاءه من العلو و قد تركه بالأرض و قيل له في ذلك النداء يا محمد قف إن ربك يصلي فأخذه لهذا الخطاب انزعاج و تعجب كيف تنسب الصلاة إلى اللّٰه تعالى فتلا عليه في ذلك المقام ﴿هُوَ الَّذِي يُصَلِّي عَلَيْكُمْ وَ مَلاٰئِكَتُهُ لِيُخْرِجَكُمْ مِنَ الظُّلُمٰاتِ إِلَى النُّورِ﴾ [الأحزاب:43] فعلم ما المراد بنسبة الصلاة إلى اللّٰه فسكن روعة مع كونه سبحانه لا يشغله شأن عن شأن و لكن قد وصف نفسه بأنه لا يفعل أمرا حتى يفرغ من أمر آخر فقال ﴿سَنَفْرُغُ لَكُمْ أَيُّهَ الثَّقَلاٰنِ﴾



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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