الفتوحات المكية

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و قال ﴿مٰا عَلَى الرَّسُولِ إِلاَّ الْبَلاٰغُ﴾ [المائدة:99] فلو أثر كلام أحد في أحد لصدقه في كلامه لأسلم كل من شافهه النبي عليه السّلام بالخطاب بل كذب و رد الكلام في وجهه و قوتل فإن لم يكن لله عناية بالسامع بأن يجعل في قلبه صفة القبول حتى يلقي بها النور الإلهي من سراج النبوة كما وصفه تعالى ﴿وَ سِرٰاجاً مُنِيراً﴾ [الأحزاب:46] أ لا ترى الفتيلة إذا كان رأسها يخرج منه دخان و هي غير مشتعلة فإذا سامتت بذلك الدخان السراج اشتعل ذلك الدخان بما فيه من الرطوبة و تعلق فيه النور من السراج و نزل على طريقه حتى يستقر في رأس الفتيلة التي انبعث منها ذلك الدخان إلى السراج فتشعل الفتيلة و تلحق برتبة السراج في النورية فإن كانت لها مادة دهن و هي العناية الإلهية بقيت مستنيرة ما دام الدهن يمدها و ذلك النور يذهب برطوبات ذلك الدهن الذي به بقاؤه و لم يبق معه للسراج حديث بعد أن ظهر فيه النور و بقي الإمداد من جانب الحق فلا يدري أحد ما يصل إليه فإن الأنبياء ما دعت لا نفسها الناس و إنما دعتهم إلى ربها فأي قلب اعتنى اللّٰه به و قام به حرقة الشوق إلى ذلك الدعاء مثل احتراق رأس الفتيلة ثم انبعث من هذا الشوق همة إلى ما دعاه إليه الرسول في كلامه مثل انبعاث الدخان من تلك النارية التي في رأس الفتيلة و هي قوة جاذبة فجذبت من نور النبوة و الوحي و الهداية ذلك الاشتعال الذي قام بالدخان فرجع به إلى قلب صاحبه فاهتدى و استنار كما اتقدت هذه الفتيلة ثم فارق النبي و مشى إلى أهله نورا فإن اعتنى اللّٰه به و أمده بتوفيقه ثبت له في قلبه نور الهداية بذاك الإمداد و لم يبق للرسول بعد ذلك معه شغل إلا بتعيين الأحكام إلا إن ذلك النور و هو نور الايمان ﴿مٰا كُنْتَ تَدْرِي مَا الْكِتٰابُ وَ لاَ الْإِيمٰانُ وَ لٰكِنْ جَعَلْنٰاهُ نُوراً نَهْدِي بِهِ مَنْ نَشٰاءُ مِنْ عِبٰادِنٰا﴾ [الشورى:52] قال عليه السّلام عن ربه ﴿أَدْعُوا إِلَى اللّٰهِ﴾ و لم يقل ادعوا لي نفسي و إلى حرف موضوع للغاية فإذا أجاب المؤمن مشى إلى ربه على الطريقة التي شرع له هذا الرسول فلما وصل إلى اللّٰه تلقاه الحق تلقي إكرام و هبات و منح و عطايا فصار يدعو إلى اللّٰه على بصيرة كما دعا ذلك الرسول و هو قوله حين قال



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