الفتوحات المكية

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﴿فَسَبِّحْ بِاسْمِ رَبِّكَ الْعَظِيمِ﴾ [الواقعة:74] أي لا تنزهه إلا بأسمائه لا بشيء من أكوانه و أسماؤه لا تعرف إلا منه عندنا و إن كانت هذه المسألة مسألة خلاف بين علماء الرسوم فإذا لم تعرف أسماؤه إلا منه و لا ينزه إلا بها فكان العبد ناب مناب الحق في الثناء عليه بما أثنى هو على نفسه لا بما أحدثه العبد من نظره و أي شرف أعظم من شرف من ناب مناب الحق في الثناء عليه و المعرفة به فكان الحق استخلف عبده عليه في هذه الرتبة فلو إن المثنى على اللّٰه بأسمائه يعرف قدر هذه المنزلة التي أنزله اللّٰه فيها لفنى عن وجوده فرحا بما هو عليه ثم لا يخلو العبد في هذا الثناء إما أن يثني على اللّٰه بأسماء التنزيه أو بأسماء الأفعال فالمتقدم عندنا من جهة الكشف أن تبتدئ بأسماء التنزيه و بالنظر العقلي بأسماء الأفعال فلا بد من مشاهدة المفعولات فأول مفعول أشاهده الأقرب إلي و هو نفسي فأثنى عليه بأسماء فعله بي و في و كلما رمت أن أنتقل من نفسي إلى غيري اطلعت على حادث آخر أحدثه في نفسي بطلب يطلب مني الثناء عليه به فلا أزال كذلك أبد الأبد دنيا و آخرة و لا يكون إلا هكذا فانظر ما يبقى علي من منازل الثناء على اللّٰه من مشاهدة ما سواى من المخلوقين و هذا المشهد يطلب لا أحصي ثناء عليك أنت كما أثنيت على نفسك و لهذا التتميم قال الصديق العجز عن درك الإدراك إدراك و بعد الفراغ مني و من المخلوقين حينئذ أشرع في الثناء عليه بأسماء التنزيه و الفراغ من نفسي محال فالوصول إلى مشاهدة الأكوان بالفراغ من الأكوان محال فالوصول إلى أسماء التنزيه محال فإذا رأيت أحدا من العامة أو ممن يدعي المعرفة بالله يثني على اللّٰه بأسماء التنزيه على طريق المشاهدة أو بأسماء الأفعال من حيث ما هي متعلقة بغيره

[من عمى عن نفسه]

فاعلم أنه ما عرف نفسه و لا شاهدها و لا أحس بآثار الحق فيه و من عمي عن نفسه التي هي أقرب إليه فهو على الحقيقة عن غيره أعمى و أضل سبيلا قال تعالى ﴿وَ مَنْ كٰانَ فِي هٰذِهِ أَعْمىٰ﴾ [الإسراء:72]



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