الفتوحات المكية

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فأنزل الولد منزلة النفس و كما لا يفنى الإنسان في حبه نفسه للقرب المفرط الذي ما يكون مثله قرب إليه البتة كذلك لا يفنى الإنسان في حب ولده و لا ماله و لا أهله لأنه منوط بقلبه بمنزلة نفسه للقرب المفرط يخفى ذلك فيه فإن اتفق أن يطلق امرأته و قد كان حبه إياها كامنا فيه لا يظهر لإفراط القرب أخذه الشوق إليها و هام فيها و حن إليها لبعدها عن ذلك القرب المفرط لتعلق الشوق و الوجد بها و لهذا يفنى العاشق في معشوقه الأجنبي لأنه ليس له ذلك القرب الظاهر الذي يحول بينه و بين الاشتياق إليه و لقرب الحق من قلوب العارفين بالعلم المحقق الذوقي الذي وجدوه لهذا صحوا و لم يهيموا فيه هيمان المحبين لله من كونه تجلى لهم في جمال مطلق و تجليه للعلماء به في كمال مطلق و أين الكمال من الجمال فإن الأسماء في حق الكامل تتمانع فيؤدي ذلك التمانع إلى عدم تأثيرها فيمن هذه صفته فيبقى منزها عن التأثير مع الذات المطلقة التي لا تقيدها الأسماء و لا النعوت فيكون الكامل في غاية الصحو كالرسل و هم أكمل الطوائف لأن الكامل في غاية القرب يظهر به في كمال عبوديته مشاهدا كمال ذات موجدة و إذا تحققت ما قلناه علمت أين ذوقك من ذوق الرجال الكمل الذين اصطفاهم اللّٰه فيه و اختارهم منه و نزههم عنه فهم و هو كهو و هم فسماه الكامل منهم العصر لأنه ضم شيء إلى شيء لاستخراج مطلوب فضمت ذات عبد مطلق في عبوديته لا يشوبها ربوبية بوجه من الوجوه إلى ذات حق مطلق لا يشوبها عبودية أصلا بوجه من الوجوه من اسم إلهي بطلب الكون فلما تقابلت الذاتان بمثل هذه المقابلة كان المعتصر عين الكمال للحق و العبد و هو كان المطلوب الذي له وجد العصر فإن فهمت ما أشرنا إليه فقد سعدت و ألقيتك على مدرجة الكمال فارق فيها و لهذا المعنى الإشارة في نظمنا في أول الباب

صلاة العصر ليس لها نظير *** لضم الشمل فيها بالحبيب

و بعد أن أبنت لك مرتبة الكمال فلنبين لك من هذا المنزل قيام الواحد مقام الجماعة و هو عين الإنسان الكامل فإنه أكمل من عين مجموع العالم إذ كان نسخة من العالم حرفا بحرف و يزيد أنه على حقيقة لا تقبل التضاؤل حين قبلها أرفع الأرواح الملكية إسرافيل فإنه يتضاءل في كل يوم سبعين مرة حتى يكون كالوضع أو كما قال و التضاؤل لا يكون إلا عن رفعة سبقت و لا رفعة للعبد الكلي في عبوديته فإنه مسلوب الأوصاف فلو أنتج لذلك الروح المتضايل حال هذا العبد الكلي في عبوديته لما تكرر عليه التضاؤل فافهم ما أشرت به إليك و قد نبهتك بهذا الخبر أن هذا الملك من أعلم الخلق بالله و تكرار تضاؤله لتكرار التجلي و الحق لا يتجلى في صورة مرتين فيرى في كل تجل ما يؤديه إلى ذلك التضاؤل هذا هو العلم الصحيح الذي تعطيه معرفة اللّٰه ثم لتعلم إن اللّٰه خلق ﴿اَلْإِنْسٰانَ فِي أَحْسَنِ تَقْوِيمٍ﴾ [التين:4] للصورة التي خصه بها و هي التي أعطته هذه المنزلة فكان أحسن تقويم في حقه لا عن مفاضلة أفعل من كذا بل هو مثل قوله اللّٰه أكبر لا عن مفاضلة بل الحسن المطلق للعبد الكامل كالكبرياء المطلق الذي للحق فهو أحسن تقويم لا من كذا كما هو الحق أكبر لا من كذا لا إله إلا هو و لا عبد إلا المصمت في عبودته فإن حاد العبد عن هذه المرتبة بوصف ما رباني و إن كان محمودا من صفة رحمانية و أمثالها فقد زال عن المرتبة التي خلق لها و حرم من الكمال و المعرفة بالله على قدر ما اتصف به من صفات الحق فليقلل أو يكثر*



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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