الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿قُلْ هُوَ اللّٰهُ أَحَدٌ﴾ [الإخلاص:1] فابتدأ بالضمير و لم يجر له ذكر متقدم يعود عليه في نفس القرآن و إن كانت اليهود قد قالت له انسب لنا ربك فربما يتوهم صاحب اللسان أن هذا الضمير يعود على الرب الذي ذكرته اليهود و لتعلم إن هذا الضمير لا يراد به الرب الذي ذكرته اليهود لأن اللّٰه يتعالى أن يدرك معرفة ذاته خلقه و لذلك قال ﴿هُوَ اللّٰهُ﴾ [الأنعام:3] و ما ذكر في السورة كلها شيئا يدل على الخلق بل أودع تلك السورة التبري من الخلق فلم يجعل المعرفة به نتيجة عن الخلق فقال تعالى ﴿وَ لَمْ يُولَدْ﴾ [الإخلاص:3] و لم يجعل الخلق في وجوده نتيجة عنه كما يزعم بعضهم بأي نسبة كانت فقال تعالى ﴿لَمْ يَلِدْ﴾ [الإخلاص:3] و نفى التشبيه بأحدية كل أحد بقوله ﴿وَ لَمْ يَكُنْ لَهُ كُفُواً أَحَدٌ﴾ [الإخلاص:4] و أثبت له أحدية لا نكون لغيره و أثبت له الصمدانية و هي صفة تنزيه و تبرئة فارتفع إن يكون الضمير يعود على الرب المذكور المضاف إلى الخلق في قولهم له صلى اللّٰه عليه و سلم انسب لنا ربك فأضافوه إليه لا إليهم و لما نسبه صلى اللّٰه عليه و سلم بما أنزل عليه لم يضفه لا إليه و لا إليهم بل ذكره بما يستحقه جلاله فإذا ليس الضمير في هو اللّٰه يعود على من ذكر و أين المطلق من المقيد فهوية المقيد ليست هوية المطلق فهوية المقيد نسبة تتعلق بالكون فتتقيد به إذ تقيد الكون بها فيقال خالق و مخلوق و قادر و مقدور و عالم و معلوم و مريد و مراد و سميع و مسموع و بصير و مبصر و مكلم و مكلم و الحي ليس كذلك فهو هويته لا تعلق له بالكون و ليس القيوم كذلك فإذا عرفت ما ذكرناه عرفت أن الإضمار قبل الذكر لا يصح إلا على اللّٰه و بعد الذكر تقع فيه المشاركة قال تعالى



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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