الفتوحات المكية

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﴿غَنِيٌّ عَنِ الْعٰالَمِينَ﴾ [آل عمران:97] فهو غني عن الكثرة و عن الدلالة عليه

(منصة و مجلى)نعت المحب بأنه يعتب نفسه بنفسه في حق محبوبه

و ذلك أن المحب يرى أنه يعجز عما لمحبوبه عليه من الحقوق التي أوجبها حبه عليه و لا علم له بطريق الإحاطة بمحاب محبوبه فيجهد في أنه يعمل بقدر ما علم من ذلك ثم يقول لنفسه لو صدقت في حبك لكشف لك عن جميع محابه فإنك في دار التكليف و هي دار محصورة و محاب الحبيب فيها معينة بخلاف الآخرة فإنك مسرح العين فيها لأنها كلها محابه فلا عتاب هناك فلهذا عتب المحب هنا نفسه بنفسه في حق محبوبه المحب اللّٰه وصف نفسه بالتردد في حق حبه للعبد المؤمن إذ من حق المحبوب أن لا يعمل له المحب ما يكرهه و المحبوب يكره الموت و الحق يكره مساءته من حيث ما هو محبوب له فهذا معنى العتب و لا بد له من الموت لما سبق من العلم و لكن لجهل العبد بما له في اللقاء من الخير بخلاف المحبين فإنهم يحبون الموت لا للراحة بل للالتقاء مع المحبوب و من المحبين من يغلب عليه رضي المحبوب و يرى أنه لا يحصل ذلك على حالة يعرف بها قدر حب المحب إلا بوجود التحجير و تميز ما يرضى مما يسخط و لا يكون له ذلك إلا في دار التكليف و أما في الآخرة فلا تحجير فيقع التساوي فيرتفع تميز قدر المحب في تصرفه من غير المحب فيكره بعض المحبين الموت لهذا المعنى و هذا لصدقهم في المحبة و المحب اللّٰه أيضا في هذه الحقيقة و قد قضى بالموت على الجميع و كان غرض هذه الطائفة المخصوصة التي تريد التمييز أن لا يرتفع عنها التحجير لتعلم قدر محبتها لسيدها على غيرها من الطوائف و يأبى سبق العلم بالكائن إلا أن يكون فهذا القدر يسمى عتبا في حق الحق يميزه قوله تعالى



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