الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
[18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37]

الصفحة - من السفر وفق مخطوطة قونية (المقابل في الطبعة الميمنية)

  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
futmak.com - الفتوحات المكية - الصفحة 457 - من السفر  من مخطوطة قونية

الصفحة - من السفر
(وفق مخطوطة قونية)

و المخاطب في غاية الصفاء فقال ﴿بَلىٰ﴾ [البقرة:81] فكان كمثل الصدا فإنهم أجابوه به فإن الوجود المحدث خيال منصوب و هذا الإشهاد كان إشهاد رحمة لأنه ما قال لهم وحدي إبقاء عليهم لما علم من أنهم يشركون به بما فيهم من الحظ الطبيعي و بما فيهم من قبول الاقتدار الإلهي و ما يعلمه إلا قليل فلما برزت صور العالم من العلم الأزلي إلى العين الأبدي من وراء ستارة الغيرة و العزة بعد ما أسرج السرج و أنار بيت الوجود و بقي هو في ظلمة الغيوب فشوهدت الصور متحركة ناطقة بلغات مختلفات و الصور تنبعث من الظلمة فإذا انقضى زمانها عادت إلى الظلمة و هكذا حتى السحر فأراد الفطن أن يقف على حقيقة ما شاهده بصره فإن للحس أغاليط فقرب من الستارة فرأى نطقها غيبا فيها فعلم إن ثم سرا عجيبا فوقف عليه من نفسه فعرفه و عرف الرسول و ما جاء به من وظائف التكليف فأول وظيفة كلمة التوحيد فأقر الكل بها فما جحد أحد الصانع و اختلفت عباراتهم عليه فابتلاهم بأن خاطبهم بلسان الشرك شهادة الرسول فوقع الإنكار باختصاص الجنس فتفرق أهل الإنكار على طريقين فمنهم من نظر في الظواهر فلم ير تفضيلا في شيء ظاهر فأنكر و منهم من نظر باطنا عقلا فرأى الاشتراك في المعقولات و نسي الاختصاص فأنكر فأرسله بالسيف ف‌ ﴿قَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ الرُّعْبَ﴾ [الأحزاب:26] من الموت و داخلهم الشك على قدر نظرهم فمنهم من استمر على نفي كلمة الإشراك قطعا فذلك كافر و منهم من استمر عليها مشاهدة فذلك عالم بالله و منهم من استمر على ثبتها نظرا فذلك عارف بالله و منهم من استمر على ثبتها اعتقادا فتلك العامة و منهم من خاف القتل فلفظ و لم يعتقد فنادى عليه لسان الحق فقال ﴿وَ مِنَ النّٰاسِ مَنْ يَقُولُ آمَنّٰا بِاللّٰهِ وَ بِالْيَوْمِ الْآخِرِ﴾ [البقرة:8] ظاهرا ﴿وَ مٰا هُمْ بِمُؤْمِنِينَ﴾ [البقرة:8] باطنا



هذه نسخة نصية حديثة موزعة بشكل تقريبي وفق ترتيب صفحات مخطوطة قونية
  الصفحة السابقة

المحتويات

الصفحة التالية  
  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

ترقيم الصفحات موافق لمخطوطة قونية (من 37 سفر) بخط الشيخ محي الدين ابن العربي - العمل جار على إكمال هذه النسخة.
(المقابل في الطبعة الميمنية)

 
الوصول السريع إلى [الأبواب]: -
[0] [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17] [18] [19] [20] [21] [22] [23] [24] [25] [26] [27] [28] [29] [30] [31] [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38] [39] [40] [41] [42] [43] [44] [45] [46] [47] [48] [49] [50] [51] [52] [53] [54] [55] [56] [57] [58] [59] [60] [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70] [71] [72] [73] [74] [75] [76] [77] [78] [79] [80] [81] [82] [83] [84] [85] [86] [87] [88] [89] [90] [91] [92] [93] [94] [95] [96] [97] [98] [99] [100] [101] [102] [103] [104] [105] [106] [107] [108] [109] [110] [111] [112] [113] [114] [115] [116] [117] [118] [119] [120] [121] [122] [123] [124] [125] [126] [127] [128] [129] [130] [131] [132] [133] [134] [135] [136] [137] [138] [139] [140] [141] [142] [143] [144] [145] [146] [147] [148] [149] [150] [151] [152] [153] [154] [155] [156] [157] [158] [159] [160] [161] [162] [163] [164] [165] [166] [167] [168] [169] [170] [171] [172] [173] [174] [175] [176] [177] [178] [179] [180] [181] [182] [183] [184] [185] [186] [187] [188] [189] [190] [191] [192] [193] [194] [195] [196] [197] [198] [199] [200] [201] [202] [203] [204] [205] [206] [207] [208] [209] [210] [211] [212] [213] [214] [215] [216] [217] [218] [219] [220] [221] [222] [223] [224] [225] [226] [227] [228] [229] [230] [231] [232] [233] [234] [235] [236] [237] [238] [239] [240] [241] [242] [243] [244] [245] [246] [247] [248] [249] [250] [251] [252] [253] [254] [255] [256] [257] [258] [259] [260] [261] [262] [263] [264] [265] [266] [267] [268] [269] [270] [271] [272] [273] [274] [275] [276] [277] [278] [279] [280] [281] [282] [283] [284] [285] [286] [287] [288] [289] [290] [291] [292] [293] [294] [295] [296] [297] [298] [299] [300] [301] [302] [303] [304] [305] [306] [307] [308] [309] [310] [311] [312] [313] [314] [315] [316] [317] [318] [319] [320] [321] [322] [323] [324] [325] [326] [327] [328] [329] [330] [331] [332] [333] [334] [335] [336] [337] [338] [339] [340] [341] [342] [343] [344] [345] [346] [347] [348] [349] [350] [351] [352] [353] [354] [355] [356] [357] [358] [359] [360] [361] [362] [363] [364] [365] [366] [367] [368] [369] [370] [371] [372] [373] [374] [375] [376] [377] [378] [379] [380] [381] [382] [383] [384] [385] [386] [387] [388] [389] [390] [391] [392] [393] [394] [395] [396] [397] [398] [399] [400] [401] [402] [403] [404] [405] [406] [407] [408] [409] [410] [411] [412] [413] [414] [415] [416] [417] [418] [419] [420] [421] [422] [423] [424] [425] [426] [427] [428] [429] [430] [431] [432] [433] [434] [435] [436] [437] [438] [439] [440] [441] [442] [443] [444] [445] [446] [447] [448] [449] [450] [451] [452] [453] [454] [455] [456] [457] [458] [459] [460] [461] [462] [463] [464] [465] [466] [467] [468] [469] [470] [471] [472] [473] [474] [475] [476] [477] [478] [479] [480] [481] [482] [483] [484] [485] [486] [487] [488] [489] [490] [491] [492] [493] [494] [495] [496] [497] [498] [499] [500] [501] [502] [503] [504] [505] [506] [507] [508] [509] [510] [511] [512] [513] [514] [515] [516] [517] [518] [519] [520] [521] [522] [523] [524] [525] [526] [527] [528] [529] [530] [531] [532] [533] [534] [535] [536] [537] [538] [539] [540] [541] [542] [543] [544] [545] [546] [547] [548] [549] [550] [551] [552] [553] [554] [555] [556] [557] [558] [559] [560]


يرجى ملاحظة أن بعض المحتويات تتم ترجمتها بشكل شبه تلقائي!