الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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﴿رَبَّنٰا ظَلَمْنٰا أَنْفُسَنٰا﴾ [الأعراف:23] حيث عرضوها إلى التلف و كان حقها عليهم أن يسعوا في نجاتها بامتثال نهي سيدهم ﴿وَ إِنْ لَمْ تَغْفِرْ لَنٰا وَ تَرْحَمْنٰا﴾ [الأعراف:23] أي و إن لم تسترنا عن وارد المخالفة حتى لا يحكم سلطانه علينا و ترحمنا بذلك الستر ﴿لَنَكُونَنَّ مِنَ الْخٰاسِرِينَ﴾ [الأعراف:23] ما ربحت تجارتنا فانتج لهم هذا الاعتراف قوله ﴿فَتٰابَ عَلَيْهِ وَ هَدىٰ﴾ [ طه:122] أي رجع عليهم بستره فحال بينهم ذلك الستر الإلهي و بين العقوبة التي تقتضيها المخالفة و جعل ذلك من عناية الاجتباء أي لما اجتباه أعطاه الكلمات و هدى أي بين له قدر ما فعل و قدر ما يستحقه من الجزاء و قدر ما أنعم به عليه من الاجتباء و مع التوبة قال له اهبط هبوط ولاية و استخلاف لا هبوط طرد فهو هبوط مكان لا هبوط رتبة

هبوط مكان لا هبوط مكانة *** لتلقى به فوزا و ملكا مخلدا

كما قال من أغواه صدقا لكونه *** رآه كلاما من إله مسددا

فإن إبليس قال له ﴿هَلْ أَدُلُّكَ عَلىٰ شَجَرَةِ الْخُلْدِ وَ مُلْكٍ لاٰ يَبْلىٰ﴾ [ طه:120] فسمع ذلك الخطاب من ربه تعالى فكان صدقا لحسن ظنه بربه فعرض له من أجل المحل الذي ظهر فيه خطاب الحق و أورثه ظهور السوآت من أجل المحل و أورثه الأكل الخلد و الملك الذي لا يبلى و لكن بعد ظهور سلطانه و نيابته و نيابة بنيه في خلقه حكما مقسطا عدلا يرفع القسط و يضعه أورثه ذلك كله توبة ربه

[الناصح نفسه من سلك طريقة أبيه آدم في التوبة]

و اعلم أن توبة ربه مقطوع لها بالقبول و توبة العبد في محل الإمكان لما فيها من العلل و عدم العلم باستيفاء حدودها و شروطها و علم اللّٰه فيها فالعارفون آدميون يسألون من ربهم أن يتوب عليهم و حظهم من التوبة الاعتراف و السؤال لا غير ذلك هذا معنى قوله تعالى



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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