الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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(وفق مخطوطة قونية)

فإن قلت و ما هذه الألفاظ التي ذكرتها قلنا أما اللوح فمحل التدوين و التسطير المؤجل إلى حد معلوم و أما الهوية فالحقيقية الغيبية و أما النون فعالم الإجمال و أما الإنابة فقولك بك و أما القلم فعلم التفصيل و أما الاتحاد فتصيير الذاتين ذاتا واحدة فأما عبد و إما رب و لا يكون إلا في العدد و في الطبيعة و هو حال و أما الجرس فإجمال الخطاب بضرب من القهر لقوة الوارد و هذا كله لا يناله إلا أهل النوالة

[النوالة]

فإن قلت و ما النوالة قلنا الخلع التي تخص الأفراد من الرجال و قد تكون الخلع مطلقا و مع هذا فهم في الحجاب

[الحجاب]

فإن قلت و ما الحجاب قلنا ما ستر مطلوبك عن عينك إذا كان الحجاب مما يلي المخدع

[المخدع]

فإن قلت و ما المخدع قلنا موضع ستر القطب عن الأفراد الواصلين عند ما يخلع عليهم و هو خزانة الخلع و الخازن هو القطب قال محمد بن قائد الأواني رقيت حتى لم أر أمامي سوى قدم واحدة فغرت فقيل هي قدم نبيك فسكن جأشي و كان من الأفراد و تخيل أن ما فوقه إلا نبيه و لا تقدمه غيره و صدق رضي اللّٰه عنه فإنه ما شاهد سوى طريقه و طريقه فما سلك عليها غير نبيه و قيل له هل رأيت عبد القادر قال ما رأيت عبد القادر في الحضرة فقيل ذلك لعبد القادر قال صدق ابن قائد في قوله فإني كنت في المخدع و من عندي خرجت له النوالة و سماها بعينها فسئل ابن قائد عن النوالة ما صفتها فقال مثل ما قال عبد القادر فكان أحدهما من أهل الخلوة و الآخر من أهل الجلوة

[الخلوة و الجلوة]

فإن قلت و ما الخلوة و الجلوة قلنا الجلوة خروج العبد من الخلوة بنعوت الحق فيحرق ما أدركه بصره و الخلوة محادثة السر مع الحق حيث لا ملك و لا أحد و هناك يكون الصعق

[الصعق]

فإن قلت و ما الصعق قلنا الفناء عند التجلي الرباني و هو لأهل الرجاء لأهل الخوف

[الرجاء و الخوف]

فإن قلت و ما الرجاء و الخوف قلنا الرجاء الطمع في الآجل و الخوف ما تحذر من المكروه في المستأنف و لهذا يجنح إلى التولي و هو رجوعك إليك منه بعد التلقي



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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