الفتوحات المكية

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[اعتقاد القربة و أنواعها]

﴿فَيَقُولُ﴾ [البقرة:26] اللّٰه تعالى للرسل ﴿مٰا ذٰا أُجِبْتُمْ﴾ [المائدة:109] إذا كان كلامه لهم في حق ما كلفهم من الدعوة إليه فإن أراد السائل ما كلامه للرسل فيما يختص بذواتهم من كونهم عبيدا مقربين فيكلمهم بما يكلم به المقربين من عباده فكلامه للرسل المقربين ممن اعتقدتم القربة هل اعتقدتم أن اقترابكم إلينا أو إلى سعادتكم أو إلى معرفة ذواتكم أو إلى معرفتي

[الاقتراب إلى الحق و تناقضاته]

فإن اعتقدتم اقترابكم إلينا فقد حددتموني و أنا لا حد لي و هذا اللسان الذي أذكره في هذا الفصل إنما هو كلام الحق لمن دعا إلى اللّٰه على بصيرة كما قال ﴿أَدْعُوا إِلَى اللّٰهِ عَلىٰ بَصِيرَةٍ أَنَا وَ مَنِ اتَّبَعَنِي﴾ فهذا لسان من اتبعه في دعوته إلى اللّٰه نيابة عنه فكأنه رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم يدعو إلى اللّٰه على بصيرة من حيث دعا الرسول لأنهم ورثة و إنما قلنا هذا لأن كلامه للرسل لا يعرفه إلا الرسل و لا ذوق لنا فيه و لو عرفنا به ما عرفناه و لو عرفناه لكنا رسلا مثلهم و لا حظ لنا في رسالتهم و لا في نبوتهم و كلامنا لا يكون إلا عن ذوق فالجواب عن هذا السؤال إذا أراد الرسل ترك الجواب فأردنا أن نفيد أصحابنا في أن نتكلم في كلامه تعالى للرسل الذين هم الورثة رسل رسل اللّٰه لما دعوا إلى اللّٰه على بصيرة و شرك رسول اللّٰه صلى اللّٰه عليه و سلم في الدعوة إلى اللّٰه على بصيرة بينه و بين من اتبعه فاعلموا من أين نتكلم و فيمن أتكلم و عمن نبين ثم نرجع إلى ما كنا بسبيله فنقول فيقول فقد حددتموني و أنا لا حد لي فنقول هذا الذي تقول لسان العلم و أنت خاطبتنا بلسان الايمان فآمنا «فقلت من تقرب إلي شبرا تقربت إليه ذراعا و من تقرب إلي ذراعا تقربت منه باعا» فما حددناك إلا بحدك فأنت حددت نفسك بنا و حددتنا بك و إلا فمن أين لنا أن نحد ذواتنا فكيف أن نحدك و جعلت الايمان بما ذكرناه قربة إليك فهذا كلامك و لسان الايمان و نحن لا جراءة لنا على أن نقول ما قلته عن نفسك فيقول صدقتم هذا لسان الايمان



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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